Monday, October 24, 2011

.................''पुरुषार्थ के पूर्व.''..............


(इसी ब्लाग के पिछले लेख में से कुछ महत्वपूर्ण अंश संग्रह )

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भगवान पर लान्क्षन लगाना ,परमात्मा पर दोष का आरोपण करना सरल भी तो बहुत है.कोई प्रत्युत्तर देने वाला तथा प्रतिरोध करने वाला साकार में सामने नही है..
और इससे मिलता भी क्या है ब्यक्ति को .?
बस अपने मन की भड़ास निकालकर कुछ पलों के लिए अपने आप से भाग सकता है.
लेकिन अपना अब आगे का जीवन भी तो ब्यक्ति को खुद ही जीना होता है..
ब्यक्ति अपने से भाग कर कहाँ जायेगा.?
अगर अपना जीवन हमे खुद ही जीना है.अगर हमारा जीवन कोई अन्य नही जीने आने वाला है,तो,हमे अपने वर्तमान परिवेश में उत्पन्न परिस्थितियों की तरफ ध्यान पूर्वक एकाग्रता से होशपूर्वक देखना होगा...
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जो अन्दर और बाहर दोनों जगह 'विचरण' करता हो.वह 'विचार' है.स्वतंत्र व् मुक्त विचरण करने वाला 'तत्व' विचार है....

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जब सारे इतिहास ,सभ्यताए,शास्त्र और प्रमाण मिलकर भी ''सत्य और धर्म'' की स्थापना करने में असमर्थ हो जाते हैं ......तब 'वह' यथार्थ रूप में सशरीर साकार उपस्थित होता है ....और उस परमात्माके कार्य का संपादनकरता है .....प्रतिनिधि बन कर...

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..'प्रवचन' सदा ही दुसरे का वचन होता है,अपना नही.और' धर्म' सदा ही 'अपना' होता है.
....'
धर्म' में कोई 'दूसरा' नही होता.प्रवचन में कहीं-कही 'धर्मचर्चा' तो हो भी सकती है,इसमे धर्म 'चर्चा' की 'संभावना' है,पर 'धर्मप्राप्ति 'दुर्लभ है.इसीलिए लिखा हुआ मुख्य वाक्य
[
जीवन में प्रायोगिकता और अपने चेतना के विस्तार से अलग ,क्या सिर्फ पुस्तकों पर छपे हुए ज्ञान से भूख भर सकती है......?]
अत्यंत महत्वपूर्ण ,गंभीर,समझने में सरल और रहस्यपूर्ण है.शांति से व् बिना पूर्व ज्ञान के पढने से,'वह' मिलता है,जिसकी व्यक्ति को ' भूख' होती है....

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स्वभाव में जब कमियां ,कमजोरियां और दुराग्रह का निष्कासन जितना शीघ्र होगा.अपने इष्ट (परमात्मा ) की समीपता उतनी ही स्पस्ट अनुभूति होगी...

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हिमालय की दुर्गमता और प्रकृति की विपरीत असमान्य स्थितियां मुझे अत्यंत प्रिय हैं और मुझे अपनी ओर खींचती हैं.इससे मै यह महसूस करता हूँ की प्रकृति अपने साकार रूप से हमारे मेरे आसपास जीवंत उपस्थित और सक्रिय है.

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हे प्रिय..!.. जहाँ तक सत्य और असत्य की बात है....मै क्या जानू सत्य ...जिस सत्य के सामने झूठ का प्रतिछाया(डर) सदा ही उपस्थित रहा करता है ॥
मै उस कमजोर सत्य का साथी नही.... ॥
.... बल्कि...........॥ 'मै' तो ''सत्य से मुक्त यथार्थ'' हूँ॥.......

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''ज्ञानी'' के ज्ञान की तो एक निश्चित सीमा होती है.उसके आगे बढ़ने में वह भयभीत होता है.क्योकि अपना ज्ञान छोड़ना पड़ेगा ,अपने अभी तक के ज्ञान से आगे बढ़ने के लिए...अपने ज्ञान का अंत होने का एक भय जन्मता है.उसी भय से वह अपने ज्ञान में ही सिमित रह जाता है.अपने ज्ञान को सामने रखकर सारे जीवन भर ''तर्क व् बहस'' करता रहता है.और खुद अपने लिये ही अपने जीवन के सरल रास्ते बंद कर लेता है....
जबकि ''जीवन'' अपना ही ''बीत'' रहा होता है....

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भगवान पर लान्क्षन लगाना ,परमात्मा पर दोष का आरोपण करना सरल है.कोई प्रत्युत्तर,प्रतिरोध करने वाला 'साकार' सामने नही है.और मिलता भी क्या है ब्यक्ति को ?बस अपने मन की भड़ास निकालकर कुछ पलों के लिए अपने आप से भाग सकता है.लेकिन अपना अब आगे का जीवन भी तो ब्यक्ति को खुद ही जीना होता है.ब्यक्ति अपने से भाग कर कहाँ जायेगा?
अगर अपना जीवन हमे खुद ही जीना है.अगर हमारा जीवन कोई अन्य नही जीने आने वाला है तो हमे अपने वर्तमान परिवेश में उत्पन्न परिस्थितियों की तरफ ध्यान पूर्वक एकाग्रता से होश पूर्वक देखना होगा.

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''ज्ञानी'' के ज्ञान की तो एक निश्चित सीमा होती है.उसके आगे बढ़ने में वह भयभीत होता है.क्योकि अपना ज्ञान छोड़ना पड़ेगा ,अपने अभी तक के ज्ञान से आगे बढ़ने के लिए...
अपने ज्ञान का अंत होने का एक भय जन्मता है.उसी भय से वह अपने ज्ञान में ही सिमित रह जाता है.अपने ज्ञान को सामने रखकर सारे जीवन भर ''तर्क व् बहस'' करता रहता है.और खुद अपने लिये ही अपने जीवन के सरल रास्ते बंद कर लेता है....जबकि ''जीवन'' अपना ही ''बीत'' रहा होता है...

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एक ब्यक्ति बेचैन हो रहा है अपने कर्मो से.और मै मुस्करा रहा हूँ इस जगत को देख कर.तो क्या कोई गलती है..? नही ना...अगर मै उसकी बातो को सुन कर मुस्कराऊंगा नही, तो, उसकी घबराहट तो और बढ़ जाएगी ना...!..घबराने का काम तो वह ब्यक्ति खुद कर ही रहा है.मुस्कराना वह नही कर पा रहा है.......

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जब समाधान प्राप्त करने की तीव्र इक्षा अपने ही भीतर जन्मने लगती है. तभी बाहर से किसी का अपने अन्दर प्रवेश हो पाता है..

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''परमात्मा '' चाहता है कि उसके द्वारा निर्मित उसकी संतान उसको भी कम से कर इस बार कलियुग के अंतिम समय में उसको ईमानदारी से यादकर पुकार ले..
..सचमुच परमात्मा बढ़ा ही दयालु है.अपनी संतानों को कभी भी नही भूलता और कदम -कदम पर उसका ख्याल रखते हुए उसको समझाता रहता है.पर अभागा मानव इनसान ,मनुष्य हो .तब तो समझे......
'
गहरे देखो ! तुम्हारी प्रकृति में तेजी से परिवर्तन होता ही जा रहा है..'

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जो जैसा और जो विषय अपने लिए खोजता है ,उसके जीवन की प्रकृति में बिधाता के बिधान अनुसार वैसा ही उसे प्राप्त होता है...

हे प्रिय.... जहाँ तक सत्य और असत्य की बात है....मै क्या जानू सत्य ...जिस सत्य के सामने झूठ का प्रतिछाया सदा ही उपस्थित रहा करता है ॥

मै उस कमजोर सत्य का साथी नही....
.... बल्कि 'मै' तो ''सत्य से मुक्त यथार्थ'' हूँ
जब सारे इतिहास ,सभ्यताए,शास्त्र और प्रमाण मिल कर भी ''सत्य और धर्म'' की स्थापना करने में असमर्थ हो जाते हैं .....

.तब मै यथार्थ रूप में सशरीर साकार उपस्थित होता हूँ....

और उस परमात्मा के कार्य का संपादन करता हूँ.....

प्रतिनिधि बन कर...

यथार्थ ...का कोई पूर्व में प्रमाण नही होता........
.
घटनाये अपनी योजना अनुसार घटित होती हैं ,और प्रमाण उपलब्ध होते जाने से बुद्धिजीवी मानवों के हाथो से वही घटनाएँ शास्त्र बनते जाते हैं..
.
अगर आपके शास्त्रों में कही प्रथम मानव शरीरधारी अघोर के बारे में वर्णन हो .तो हमे व समाज को भी जरुर सूचित कीजियेगा.

जहा तक अहंकार की बात है,तो ''''...................से..........लेकर............'हं'''....................तक के ..............आकार............की भी बात आती है......कौन है जो इसके पूर्व भी है,इसके मध्य भी,और इसके अतिरिक्त भी.................''मै''.............तो.........मात्र अपने बाबा और माँ का पुत्र हूँ.....''शिवपुत्र''''''..............
'' अघोर'''...........तो ''''अवस्था''' का प्रतिक है.........
..आपका शास्त्र ...........''अघोर'' के बारे में क्या कहता है..........???..........
बाबा के ......................''''अघोर'''.................'''रूप''.....के बारे में क्या कहता है.................?.........
.
थोडा पता लगा कर हमे भी जरुर बतलाइएगा .........
......
जहाँ तक संभव होगा.......
इस जगत में प्रदर्शन कर हम आपकी सारी जिज्ञाशाओं की पूर्णाहुति करेंगे................
आप ने ''...से ''अनार'''...पढ़ा है ना....!....
'''.
मुझे'' .....''अपने पुत्र'' को .........''बाबा'' ने ,''बिधाता'' ने ''''' से '''अघोर'' पढाया है..
अनार बाहर से भले ही दीखता है , कि 'एक' है.पर अन्दर बहुत से दाने होते हैं........टुकड़ो -टुकडो में बंटा होता है.....
.''
अघोर'''...........सिर्फ ''एक'' ही होता है........वह साकार स्थूल शरीर धारी मानव रूप में हो,तो, ''........पुत्र''..........या फिर निराकार शरीर धारी रूप में ...हो....''मेरे बाबा.......................'''''अघोर''''...................
...
कह सकते हैं आप ..........अपने समझ के लिए..................''बिधाता''...............
और यह सदा स्मरण रखिये...''अघोर''' कभी कायर नही होता............

..बल्कि ............'''.योद्धा'''''..........होता है...........
...
देखिये ना बाबा के रूप को............ कैसे लगते हैं.....भला......
.''''
समाधि''' और '''युद्ध''''''...................
.....
यही प्रिय है....

एक आम आदमी के पास इतना समय ही नही होता. की, किसी नए ब्यक्ति को नए तरह से मूल रूप में ''यथार्थ'' में सुन भी पाए..
स्वीकार करने की बात तो अलग है..

जब भी कोई मुझसे कुछ कहता है या कोई जब अपने आपको धर्म के चिन्तक और अधिकारी के रूप में बोलता है ,तब मै उसे इस जगत का एक जीवित प्रतिनिधि समझ कर सुनता हूँ और देखता हूँ की आज ब्यक्ति की मानसिक सोच तथा डिमांड क्या है.....?..कारण यह है की मै सारे जगत के सामूहिक मांग की आपूर्ति करने के लिए सृष्टी की रचना करता हूँ.मनुष्यों ने अपनी प्रार्थनाओ से इतना कोलाहल मचा रखा था .की हमारा समाधी टूट गया...बाबा का समाधि टूट गया..

.बाबा ने मुझे एक पुस्तक लिखने के लिए बोला.....मेरे पास पुस्तक का मूल शीर्षक तो था पर पुस्तक विषय से सम्बंधित सभी पात्रो को इस जगत में जीवित साकार मानव शरीरधारी रूप में इस जगत के सामने प्रस्तुत करना चाहता था.और मैंने इस जगत में परिवर्तन करना प्रारम्भ कर दिया...मैंने सतयुग से लेकर अभी कलयुग तक के अनेकानेक उन मुख्य पात्रो को खोज लिया,जिन लोगो के सहयोग से इस जगत में अधिकांशत: धर्म स्थापित हुए हैं.

मै अपनी बातो से ब्यक्ति की सोच की खोज करता हूँ तथा उसे ब्यक्त करने का मौका देता हूँ..

अभी मै इस मानव जगत के प्राकृतिक सिस्टम को बाबा के आदेश पर देख समझ रहा हूँ..धर्म और धार्मिको के सोच को और आम मनुष्यों के भीतर के भूख को जानना बहुत ही जरूरी है..
यह जगत क्या कभी अपने ही परमात्मा
को ,अपने ही भगवान को आज तक स्थूल शरीर रहते पहचान सका है.?
पूर्व से निर्मित धारणाये तथा जन्म से मिले स्थूल संस्कार ब्यक्ति को धार्मिक होने ही कहा देते हैं......?....
.जीवन में प्रायोगिकता और अपने चेतना के विस्तार से अलग क्या सिर्फ पुस्तकों पर छपे हुए ज्ञान से भूख भर सकती है......?
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हम उसी शुन्यता की पूर्ति करते हैं.तथा जगत की मांग के अनुसार हम इस जगत में परिवर्तन तथा प्रकृति में परिवर्तन करते हैं...इसके लिए हमे किसी शब्द और किसी के सहारे की जरूरत नही होती.....धर्म और अध्यात्म मात्र थ्योरी है जीवन की, मानव जीवन एक यथार्थ है.,जिसमे प्रायोगिकता तथा अपनी साधना के बिना मात्र शब्दों से अहंकार ही बढ़ता है.और हमे मिला हुआ यह अतुल्य मानव 'जीवन' सिर्फ संबंधो ,विषयो,वासनाओ,और बदले की भावना तथा थोडा और भोग लेने की आदिम अतृप्तटा लिए अपने को पुजवाने के लिए, एक ज्ञानी की भांति वस्त्रो तथा शब्दों और भाषा का भिन्न -भिन्न रंग ओढ़ अनायास ही मर जाता है..और मिलता भी क्या है....? एक समूचा अतृप्त ज्ञान भरा जीवन../..?...जो पुन: एक बार अपनी शेष वासना पूर्ति के लिए किसी न किसी एक योनी प्राप्त करने की लालसा लिए भटकता ही रहता है....

किसे किस बात का ज्ञान है.?..अगर ज्ञानी के हाथ से पूर्व के मानवों के छोड़े गये शब्द शास्त्र ज्ञान को ले लिया जाये तो फिर कौन सा ज्ञान है.....?....वह जगत की प्रकृति में प्रमाणित करे.......!

जब ऐसी परिस्थितिया उत्पन्न हो जाये,की ज्ञान ही रह जाये शब्दों में सिमट कर कर,यथार्थ का अभाव हो जाये ....लोगो का इन सबसे दम घुटने लगे.धार्मिको की भीड़ के बावजूद भी भगवान के भक्तो का दम घुटने लगे .तब मुझे आना पड़ता है.
मेरा एक काम यह भी है की परमात्मा के प्रत्येक शक्तियों का प्रमाण इस सारी धरती पर इस जगत में सामूहिक रूप से प्रदर्शित करू...

..हाँ ......''''मै''.....इस ''जगत के बिधाता 'शिव''का मूलाधार हूँ.

यह सदा याद रखिये ..! जब तक ब्यक्ति ज्ञानी है...तब तक जीवन के सरल रास्ते बंद हैं.
अपने ही हाथो से अपने मार्ग के हर रास्ते बंद कर ब्यक्ति कितना और कैसे अपनी जीवन की यात्रा की दुरी तय कर सकेगा...?...
ब्यक्ति कुछ चाहता भी है किसी से और स्वीकार भी नही करता.
चाहना अलग बात है और स्वीकार करना बहुत बड़ी बात है..
..
जब तक ब्यक्ति खुद न स्वीकार करे,तब तक जिसे आप भगवान या प्रकृति कहते हैं वह भी कुछ नही कर सकती.

हाँ ..!..अपने अतुलनीय ज्ञान से अपना जीवन नस्ट कर लेना निहायत ही सहज है.

यह सन्देश इस धरती पर उपस्थित हर मानव शरीरधारी तथा अशरीरी ब्यक्ति व् आत्मा के लिए है......
''
पुत्र...!...इस जगत में जीवन के रास्ते पर आगे बढ़ना बड़ा सरल है.पर जीवन के यात्रा पर एक बार चलने के बाद वापस मुड़ना संभव नही..वापस पीछे लौटना असंभव है....और जीवन यात्रा में बनियागीरी नही चलती है..और तू...तो जानता ही है ना पुत्र की प्रत्येक ब्यक्ति आत्म हत्या करने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र है....''''

कोई प्रत्युत्तर देने वाला तथा प्रतिरोध करने वाला साकार में सामने नही है..
और इससे मिलता भी क्या है ब्यक्ति को .? बस अपने मन की भड़ास निकाल कर कुछ पलों के लिए अपने आप से भाग सकता है.लेकिन अपना अब आगे का जीवन भी तो ब्यक्ति को खुद ही जीना होता है..ब्यक्ति अपने से भाग कर कहाँ जायेगा.? अगर अपना जीवन हमे खुद ही जीना है.अगर हमारा जीवन कोई अन्य नही जीने आने वाला है तो हमे अपने वर्तमान परिवेश में उत्पन्न परिस्थितियों की तरफ ध्यान पूर्वक एकाग्रता से होश पूर्वक देखना ही होगा...

एक ब्यक्ति बेचैन हो रहा है अपने कर्मो से.और मै मुस्करा रहा हूँ इस जगत को देख कर.

तो क्या कोई गलती है..? नही ना...अगर मै उसकी बातो को सुन कर मुस्कराऊंगा नही, तो, उसकी घबराहट तो और बढ़ जाएगी ना...!..घबराने का काम तो वह ब्यक्ति खुद कर ही रहा है.मुस्कराना वह नही कर पा रहा है.क्यों की उसने ऐसे कृत्य ही किये हैं की उसके भीतर ही घबराहट और बेचैनी जायज है..
मैंने उससे बोला......
''
बेटा तू बड़ा ही भाग्यशाली है.की तू घबरा रहा है और बेचैन भी हो रहा है....घबराने वाला ब्यक्ति कभी बेहोश नही हो सकता.
क्या कभी किसी को बेचैनी व् घबराहट में बेहोश होते देखा है.?
घबराहट और बेचैनी में तो बेहोशी आ ही नही सकती .बल्कि होश आती है.......बेहोशी के लिए तो शांति चाहिए.देखो ना बेहोशी में ब्यक्ति कितना शांत दीखता है.
यह घबराहट,यह बेचैनी तुम्हे होश में लाने के लिए है.

अब तुम्हारे जीवन में बहुत हो गया था कि बेचैन हो जाओ अपने किये हुए कृत्यों से.अब जो भी अपने जीवन में कर्म और कृत्य करोगे होश में करोगे. शांति से करोगे.यह बेचैनी तुमको होश पूर्ण बनाये रखेगी.इस घबराहट और बेचैनी से तुम अब आगे अपने ही जीवन में बेहोश होने कि संभावना से सुरक्षित रह सकते हो.'''
''
अब तुम बेहोशी व् बेचैनी में ऐसा कोई कृत्य नही करोगे .जिससे कि तुम्हारा अपना खुद का ही जीवन ,जिसे तुम आज जी रहे हो ,वह आत्महत्या के आत्मघाती मार्ग पर दृढ़ता से बढ़ जाये.. ... '''

मेरे पास प्रश्नों का तथा उससे सम्बंधित उत्तरों का एकदम पूरी तरह सौ फीसदी अभाव है...मेरे पास अगर कुछ है तो इस जगत को देने के लिए समाधान है.अब लेने वाले के ऊपर यह पूरी तरह निर्भर है की वह उत्तर ही खोज रहा है,जिसमे से एक प्रश्न और खड़ा कर सके.या अपने ही जीवन में कुछ अपने लिए अपने जन्मे प्रश्नों का समाधान भी खोज रहा है .
जो जैसा और जो विषय अपने लिए खोजता है ,उसके जीवन की प्रकृति में बिधाता के बिधान अनुसार वैसा ही उसे प्राप्त होता है...
सर्व प्रथम ब्यक्ति अपना निजी खोज देख ले ,समझ ले,तो उसके ही जीवन में समाधान के लिए ज्यादा अच्छा रहेगा..इससे बार -बार लगातार व् निरंतर उठने वाली बेचैनी और घबराहट से ब्यक्ति को मुक्ति मिलने की संभावना बनने लगी है .अपनी खोज को जान कर अपने खोज के प्रति इमानदार होना निहायत ही आवश्यक है.

समाधान थोडा शब्दों में कठिन और ब्यवहार में कठोर होता है.....
यह शब्दों के विलासिता भरे वर्तमान के धार्मिक व् आध्यात्मिकता से कोसो दूर जीवन के यथार्थ पर
स्थायी मजबूती से खड़ा होता है.
....
क्योकि हर हाल में अपना जीवन हमे ही जीना होता है.हमारा जीवन कोई और न जियेगा.कितना भी प्यार हो जाये. पर कोई भी ब्यक्ति किसी का भी ब्यक्तिगत या सामाजिक जीवन नही जी सकता .
बाते हैं ,बातों का क्या....
शब्दों से अपने आपको ब्यक्त कर देने से , ब्यक्ति की अपनी अन्दर छटपटा रही भडासे निकल जाती हैं.और होता ही क्या है...?

एकांत मृत्यु समान हिमालय में अपनी उपस्थिति में मस्त ''अघोर शिवपुत्र'' ....... .इस मानव जगत का भविष्य है..
जो वर्तमान में इन असुरो से भरे जगत में भी मुस्कराता हुआ अपना जीवन भी जी रहा है तथा समाधान भी कर रहा है,निःस्वार्थ....

जब कोई पूछता है कुछ .तो उसे सुनने के लिए भी पूरी तरह तैयार रहना चाहिए.अन्यथा प्रश्न पूछने का अधिकारी जैसे गुण वाला ब्यक्ति 'वह' नही है...जिसको अपने जीवन में समाधान की तलाश व् जरूरत है...

हम कौन होते हैं किसी को भी दंड देने वाले..?
सभी बिधाता के बिधान से बंधे हैं.असुर प्रवित्ति के लोगो को ही मानव सभ्यता व् इस जगत का शत्रु कहते हैं.दंड का अधिकारी वह खुद ही बन जाता है,जो असुर तत्व होता है.और अधिकारों की आपूर्ति बिधाता खुद ही करता है,प्रत्यक्ष होकर.युगों से धर्म ,शास्त्र ,इतिहास व् घटनाएँ खुद स्व-प्रमाणित हैं..
अब अन्य कोई मार्ग खोजने का समय नही होता.फिर भी बिधाता अंत तक मौके पर मौके देता है.पर असुर अपने अंत तक अपना स्वभाव नही छोड़ता.तथा मिले हुए अवसरों तथा मौके को भी अपने अतृप्त तथा विनाशकारी वृत्तियों को पूरा करने ही लगता है.और फिर यह प्रकृति उन्हें अपने में समेट कर उन असुरो के अस्तित्व को समूल मिटा देती है.

हम तो उनके ही सिखाये गये अहिंसा को शांति से लागु करवाते हैं.हम बस उनके भविष्य में मिलने वाले परिणाम के बारे में सोच कर आज वर्तमान में उनसे कार्य करवाने की प्रेरणा को जन्मते हैं.

हम तो अभी '''बाल अघोर''' हैं..

हमने तो माँ की मुक्ति के ख़ुशी में सभी को वचन दिया हुआ है,की,कलयुग के अंतिम काल खंड में सभी को एक अंतिम मौका और एक उपहार अवस्य ही देंगे.और देते भी हैं.ब्यक्ति या देश निभाता कैसे है , इस प्राप्त अवसर को..?..प्रकृति की ओर से बिधाता की चेतावनी को ...यह तो उसके निर्भर करता है..

अब सबसे बड़ा सवाल यह तुम्हारे ऊपर मै छोड़ता हूँ की तुम अपने अध्यात्म का क्या अर्थ निकालते हो..?.
....
अपने अध्यात्म का ठीक -ठीक अर्थ निकालते ही तुम बिधाता ''बाबा '' (परमात्मा -बिधाता )के शक्ति का अंदाजा लगा लोगे .अन्यथा शब्दों में घुट-घुट कर जीवन जीने वाली सभ्यता प्रलय कालखंड में यूँ ही बेमौत मर जाती है सदा के लिए.
मै सनातन सभ्यता का एक मात्र जीवित साकार मानव रूप में प्रतिनिधि हूँ.बोलो क्या बात है..?
यह घटनाएँ मेरा परिचय है..
और अभी तो मेरे परिचय की शुरुआत भर है.बिधाता के परिवर्तित बिधान के अनुसार यह जगत चलने के लिए तैयार हो रहा है.घटना क्रमों पर सचेत रहो..
अगर होश जैसा कुछ है तो होश में रहो..

यह तो सुचना मात्र है मेरा लेखन.बाकि सन्देश और दृश्य प्रकृति में लिख कर सामने परोसकर दिखला दी जाती रहेगी .सदा की तरह.हर युग की माफिक इस बार भी..बस इतना ध्यान रहे.

यह शब्दों का नृत्य नही बल्कि कलयुग का अंतिम काल खंड में प्रवेश है,इस जगत का...

सबकी तरह मै भी एक साधारण ब्यक्ति हूँ.हमे भी अपने स्वाभिमान पर जब चोट लगता है.मेरा तपस्वी होना,मेरा शिवपुत्र होना,मेरा प्रथम मानव शरीर धारी ''अघोर''' होना ,हमे भी अपने कर्तब्य और अपने भारतीय धर्म की यादे दिलाता है.तथा अपनी सुरक्षा करते हुए अपना जीवन प्रदर्शित करने का अधिकार देता है.

हम सन्यासी व् तपस्वी हैं.तथा अघोर शिवपुत्र हैं.हमारा देश अहिंसा का पुजारी है.मै एक साधारण मानव हूँ.अत: हमने अपने पुराने अहिंसा वादी परम्पराओं को आगे भी निरंतर पालन करते हुए इस देश के अस्तित्व व् पहचान को जीवित रखने के लिए बिधाता के बिधान में थोडा बहुत आवश्यकतानुसार कुछ फेर बदल कर दिया .और प्रकृति में कुछ विशेष परिवर्तन करने का सोचा .तथा मेरे इस सोच व् आदेश का पालन करने के लिए धरती पर चारो तरफ शक्तियां फ़ैल गयी.हमने इस देश की सुरक्षा के लिए इस धरती और धरती की प्रकृति को अपने आगोश में लेकर घेरना प्रारंभ कर दिया..
हम अध्यात्मिक हैं.हमारे पास आध्यात्मिक शक्तियां हैं.हमे हमारे हमारे पास जो भी शक्तियां हैं वो सभी अध्यात्मिक है तथा मूल प्रकृति की शक्तियां हैं.हमे हमारे जैसे को अपनी अध्यात्मिक शक्तियों से अपना परिचय देना है.तथा ब्यवस्था को शांति के साथ परिवर्तित करना पड़ता है.

यह एक ब्यक्ति की अध्यात्मिक शक्तियों का अहिंसात्मक ब्यक्तिकरण है.ताकि उन हिंसक तथा ब्याभिचारी देशो में भी दीर्घ कालीन शांति ब्याप्त हो सके.याद रहे हम प्रथम मानव शरीर धारी अघोर होने के साथ एक अहिंसक देश के देशभक्त नागरिक भी हैं.सभी देशवासियों के संग मेरी भी जिम्मेदारी बनती है कि अपने देश की रक्षा के लिए जितना और जो संभव हो.वो करे...
एक जिम्मेदार भारतीय देशभक्त नागरिक की तरह अपने तपस्वी व् रास्ट्रधर्म का पालन करने के लिए अपनी धरती पर उपस्थित इस जगत के इन देशो तथा ब्यक्तियो ने मुझे अपनी अध्यात्मिक शक्तियों का परिचय ब्यक्त करने के लिए प्रेरणा दी है.
हम आभारी हैं.अपने असुर व् शत्रु देशो के जिन्होंने मुझे अपना 'अघोर रूप' को प्रदर्शित करने का अवसर दिया है.

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