Thursday, June 9, 2011

मै सनातन सभ्यता का एक मात्र जीवित साकार मानव रूप में प्रतिनिधि हूँ.


तारीख...08 ...jun2011
'''शिवपुत्र की स्वयं वार्ता.''
मै सनातन सभ्यता का एक मात्र जीवित साकार मानव रूप में प्रतिनिधि हूँ.
प्रश्न..आप भारत देश के शत्रुओं की पहचान कैसे कर लेते हैं...?..
शिवपुत्र................हम कौन होते हैं किसी को शत्रु और किसी को मित्र की श्रेणी में करने वाले.?.हमारा देश तो सदा से ही अहिंसा को मानने वाला देश
रहा है.हमारी परम्परा में अहिंसात्मक भाव है.यह एक ऐसा प्राचीन सभ्यता का प्रमाणित प्रतिनिधि है. जिस पर सदियों से लगातार बाहर से आक्रमण होते रहे हैं.परन्तु इस देश के वासियों ने सदा ही शांति सहिष्णुता व् अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए उनके आक्रमण को झेला है.उनको आत्मसात भी किया तथा मिनिमम प्रतिरोध के साथ उनका सामना किया.
परन्तु इसी स्वभाव के कारण कभी-कभी इस सभ्य देश को बेवकूफ और कायर समझ लेते हैं.तथा कुछ व् अनेक नेतृत्व कर्ता यहाँ के लोगो को पशु समान समझ कर अपने कुटिलता पूर्ण स्वार्थी नेतृत्व से यहाँ इस देश का दोहन करते हुए उन आक्रमण कारियों का स्वागत करते हैं.और तो और अपनी मित्रता का प्रमाण देने में अपने ही देश से गद्दारी तक करते रहते हैं.परन्तु इस भारत के सभ्य और सरल स्वभाव को ,जो अपने अहिंसक तथा बसुधैव कुटुम्बकम की परम्परा पर आज तक कायम है.कायर ,मुर्ख और शक्तिहीन समझने का प्रचलन जो इधर कुछ ज्यादा ही विकसित हो गया है.अब अपना ,अपने देश का परिचय तथा अपने अस्तित्व का परिचय देना बहुत ही जरूरी हो गया.
और जहाँ तक शत्रुओं की पहचान की बात है.तो इसमे करना ही क्या होता है..?..कुछ भी नही..!...बस मित्रता का पालन करते रहिये और अपने गाल पर ,अपनी अस्तित्व पर पड़ रहे थप्पड़ो को गहरे शांति से महसूस करते रहिये.बस जब लगे की अब आपका अहिन्सकता आपको मौत की दहलीज तक लेकर चला गया है.और अब कही आपको शर्म से आत्महत्या न करना पड़ जाये.अपनी नपुंसकता पर ...तो ,समझ लीजिये की वह मित्र कौन है..?वह मित्र कितना मित्र है..? कही आस्तीन का प्रत्यक्ष शत्रु तो नही...!..जिसकी सद्भावना का श्रेय उठाते -उठाते आप अपनी अर्थी पर आरूढ़ होने के कगार पर बैठे हुए हैं..यही मित्रता में,यही सद्भावना और अहिंसात्मक भाव में पड़ रहे अपने गाल पर थप्पड़ की गूंज आपको अपने शत्रु की पहचान बड़ी ही सरलता और सहजता से करवा देती है..पहचानने में हमे थोड़े ही कुछ करना होता है.
लोग अपनी ही पहचान खुद ही बतला देते हैं..
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प्रश्न..................तो,क्या असुर को ,शत्रु को दंड देना जरूरी है क्या...?...अन्य कोई मार्ग नही...
शिवपुत्र.... समाधिस्थ होकर देखने से सामने वाले की इक्षा का ज्ञान होता है.यह ज्ञान जब अति की तरफ उन्मुख होकर कुछ ज्यादा ही दर्द देने लग
जाये.और अपने अस्तित्व तथा अस्मिता की पहचान की आवश्यकता पड़ ही जाये .तो बिधाता के बिधान के अनुसार असुर प्रवित्ति के
सदकर्मी तत्व स्वयमेव अपने अति की अवस्था को प्राप्त करने के अधिकारी बन जाते हैं.
हम कौन होते हैं किसी को भी दंड देने वाले..?
सभी बिधाता के बिधान से बंधे हैं.असुर प्रवित्ति के लोगो को ही मानव सभ्यता व् इस जगत का शत्रु कहते हैं.दंड का अधिकारी वह खुद ही बन जाता है,जो असुर तत्व होता है.और अधिकारों की आपूर्ति बिधाता खुद ही करता है,प्रत्यक्ष होकर.युगों से धर्म ,शास्त्र ,इतिहास व् घटनाएँ खुद स्व-प्रमाणित हैं..
अब अन्य कोई मार्ग खोजने का समय नही होता.फिर भी बिधाता अंत तक मौके पर मौके देता है.पर असुर अपने अंत तक अपना स्वभाव नही छोड़ता.तथा मिले हुए अवसरों तथा मौके को भी अपने अतृप्त तथा विनाशकारी वृत्तियों को पूरा करने ही लगता है.और फिर यह प्रकृति उन्हें अपने में समेट कर उन असुरो के अस्तित्व को समूल मिटा देती है.

प्रश्न......क्या आपने इस दुनिया के भाग्य का ठेका ले रखा है...?..
शिवपुत्र....सबकी अपनी -अपनी समझ है.दुनिया का ठेका तो सिर्फ असुरो के हाथ में होता है.वह अपनी साधन .धन,बुद्धि और स्थूल शक्ति की
सम्पन्नता से सारे जगत को अपने अधीन करने की मानसिकता से हमे अहिंसा का पाठ पढ़ाते हैं.तथा स्वयं सारे जगह पर स्थानों -स्थानों पर युद्ध थोपते हुए अपनी साम्राज्य का विस्तार करते हैं..
हम तो उनके ही सिखाये गये अहिंसा को शांति से लागु करवाते हैं.हम बस उनके भविष्य में मिलने वाले परिणाम के बारे में सोच कर आज वर्तमान में उनसे कार्य करवाने की प्रेरणा को जन्मते हैं.
हम तो अभी '''बाल अघोर''' हैं..
इन शक्तिशाली लोगो के बिच मेरी क्या गिनती ..?न तो हम आजकल के बाबा हैं,न तो स्वामी ,न ही किसी धनाड्य संपन्न संस्था के या आश्रम के कोई गुरु ही.हम तो मात्र एक साधारण प्रथम मानव शरीर धारी अघोर हैं.जो इस जगत में अपनी मुक्त माँ के साथ अपने पिता के साम्राज्य में विचरण कर रहा है.और माँ के शक्ति प्रदर्शन को देख रहा है.
इसी प्रदर्शन में ये सारे ठेकेदार ठिकाने लगने प्रारंभ हो जाते हैं.इन ठेकेदारों की प्रकृति में ऐसा उठा पटक प्रारम्भ हो जाता है,की इनको इनके ज्ञान और सामर्थ्य को ठीक से तौलने का एक अंतिम मौका मिलता है.
हमने तो माँ की मुक्ति के ख़ुशी में सभी को वचन दिया हुआ है,की,कलयुग के अंतिम काल खंड में सभी को एक अंतिम मौका और एक उपहार अवस्य ही देंगे.और देते भी हैं.ब्यक्ति या देश निभाता कैसे है , इस प्राप्त अवसर को..?..प्रकृति की ओर से बिधाता की चेतावनी को ...यह तो उसके निर्भर करता है..
अब तुम्ही बतलाओ..! आपने,उन लोगो ने इस अत्याधुनिक लोगो ने प्रकृति को छेड़ा और निरंतर बलात्कार किया..तब शक्ति...मूल प्रकृति बंधन में थी...आसाम में ,कामरूप में ,कामख्या नाम से.प्रकृति के मूल तत्व विवस थे.अब क्या मुक्ति के बाद जब की माँ कामरूप से स्वतंत्र होकर आजादी का स्वास ले रही हैं .तब भी अपनी छेड़खानी और बलात्कार का प्रतिरोध न करे..?..
अगर प्रतिरोध करे तो तुम सब ''शिवपुत्र'' को ठेकेदार कहोगे,इस जगत का.?तो तुम्हारी यह ब्यक्तिगत समझ का सामर्थ्य है.
''मै'' क्या क़र सकता हूँ.''मै'' तो अभी भी अपने मूल आसन पर ही स्थित हूँ.
''''''अभी तो मेरे इस देश के अध्यात्मिक शक्ति का परिचय का शुरुआत मात्र है.'''
अब सबसे बड़ा सवाल यह तुम्हारे ऊपर मै छोड़ता हूँ की तुम अपने अध्यात्म का क्या अर्थ निकालते हो..?.
....अपने अध्यात्म का ठीक -ठीक अर्थ निकालते ही तुम बिधाता ''बाबा '' के शक्ति का अंदाजा लगा लोगे .अन्यथा शब्दों में घुट-घुट कर जीवन जीने वाली सभ्यता प्रलय काल खंड में यूँ ही बेमौत मर जाती है सदा के लिए.
मै सनातन सभ्यता का एक मात्र जीवित साकार मानव रूप में प्रतिनिधि हूँ.बोलो क्या बात है..?
यह घटनाएँ मेरे परिचय है..
और अभी तो मेरे परिचय की शुरुआत भर है.बिधाता के परिवर्तित बिधान के अनुसार यह जगत चलने के लिए तैयार हो रहा है.घटना क्रमों पर सचेत रहो..
अगर होश जैसा कुछ है तो होश में रहो..
यह तो सुचना मात्र है मेरा लेखन.बाकि सन्देश और दृश्य प्रकृति में लिख कर सामने परोसकर दिखला दी जाती रहेगी .सदा की तरह.हर युग की माफिक इस बार भी..बस इतना ध्यान रहे.यह शब्दों का नृत्य नही बल्कि कलयुग का अंतिम काल खंड में प्रवेश है,इस जगत का...
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और बेटा..! जहाँ तक मेरा इस दुनिया के भाग्य का ठेका लेने की बात है .तो अच्छा है की ठेका मेरे हाथो में है.इस जगत का भाग्य मेरे हाथ में है....इस जगत का बिधान अभी ''अघोर शिवपुत्र'' के द्वारा नियंत्रित है.किसी अन्य के नही.
सामाजिक बैधानिक रूप से ठेका तो देश के नेतृत्व के पास होता है.
पर जब देश का नेतृत्व दृष्टीहिन् ,अदूरदर्शी तथा आश्वासनों भरे शब्दों में जीने वाला और निर्णय हीनता की क्षमता तथा नियत वाला सुप्त तत्व हो .तो कभी-कभी इस जगत के भाग्य का ठेका लेने के लिए मुझको ही आना पड़ता है...
अगर तुम भारत भूमि पर जन्मे हो तो गीता और महाभारत के शब्द तो सुने हो ना.
'''मै देश रक्षा के लिए पुन: आ गया हूँ..'''
अभी तो असुरो व् शत्रुओं की यह घेराबंदी तथा ब्यूह रचना है.'''अघोर शिवपुत्र'' की ..
.अभी तो मात्र तत्वों का उठा पटक है.अभी अपनी नजरे भारत देश के उत्तर तथा पश्चिम की तरफ से आने वाली घटनाओं पर जमाये रखो.
अगर दृष्टी है तुम्हारे पास..

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