Friday, May 21, 2010

शिवपुत्र होना हम सबका जनम सिद्ध अधिकार है

Mrs. Deepanwita Roy choudhary met ‘Shivaputra’ at Kedarnath in May 2005. Later, she wrote a book in Bengali ‘Shivaputra Howa Amader Sakalerai Janmagata Adhikar’ which was published in January, 2007. Following is the English translation of a chapter titled ‘Kedare Shivaputrer Darshan’....हिंदी अनुबाद....कुछ अंश ... ]

''''''''केदार नाथ में शिवपुत्र दर्शन'''''

[ 1 ]

........मोक्ष क्षेत्र केदार नाथ--द्वादस ज्योतिर्लिंगों में एक....एक अपूर्व रूप लिए बम भोला महेश्वर शिव केदार खंड में विराजमान है.हिमालय स्थित केदार खंड में अपूर्व नैसर्गिक सौंदर्य के मध्य मुनि -तपस्वियों ओर अध्यात्म का संगम वन्दनीय है......
........'''हिमालय तू केदारं ''...........
.....पूर्ण रूप में चरितार्थ होता है.ऐसा लगता है कि जैसे मन्दाकिनी केदार नाथ का चरण पखारते हुए मर्त्य भूमि पर मानव जाती के लिए चरणामृत बन कर प्रवाहित है.हिमाच्छादित छोटी पर परती हुयी सूर्य किरणों को देख ऐसा प्रतीत होता है मानो माँ पार्वती अपने मस्तक पर स्वर्ण मुकुट धारण कर परम पिताके दरबार में अपनी प्रिय संतानों का स्वागत कर रही हो...केदारनाथ पर्वत माला का सौंदर्य अलौकिक है..मानो जैसे ईश्वर ने अपने हाथो अपनी ही आंतरिक प्रतिछाया का निर्माण किया है.वह हिम और पत्थर से गढ़ा हुआ विशाल पर्वत मात्र नही है---इसके भीतर प्राण है.....मंदिर के सामने खरे हो,महाप्राण का स्पंदन अत्यंत आनंदित और ह्रदय स्पर्शी लगा..
...प्रात : :काळ पूजा करने जब मंदिर गयी तो...ह्रदय से प्रार्थना कि.___
''''हे प्रभो !हे हिमालय,हे केदार नाथ..ऐसी कृपा करे कि आप ही शिव है इस सत्य कि अनुभूति मुझे प्राप्त हो.मात्र पत्थर का टुकरा देख लौटना ना परे.'''''''
...थोरी देर कतार में रहने के बाद मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश कर पाई.सभी भक्त
परम पिता को माथा टेकते हुए पूजा अर्चना में ब्यस्त थे, परन्तु मै एक बहुत ही तेज अनिवार्चानिया पर अद्वुत तथा असह्य ध्वनि सुन रही थी.ऐसा लगा जैसे कान फट जायेंगे.ब्रह्म तालू में तीव्र वेदना हुयी और लगा कि स्वांस रुक जाएगी.जब नही सह पाई तो गर्भ गृह से बाहर आ गयी .बाबा कि इक्षा क्या है,समझ ही नही पाई.
....
उस दिन संध्या समय ठण्ड इतनी थी कि बहुत कम ही लोग श्रृंगार आरती देखने गये.मै भी अपने १० वर्स के पुत्र के साथ मंदिर गयी.''बाबा'' की और धीरे-धीरे जा रही थी.भक्त गण अपनी -अपनी भाषाओ में नाना प्रकार के कीर्तन बंदन बाबा को सुना रहे थे.बाबा का दर्शन होने के बाद भी मन दुखी था बहुत आशा लेकर आई थी, पर, वापस जाना पर रहा था खाली हाथ.यह सोच कर जब रो पढ़ी तो ,उसी समय एक महात्मा मंदिर के ठीक बीचो बिच नंदी के पास आकार खरे हुए .एक दम सौम्य शांत-श्वेत वस्त्र धारी,हाथ में परम पिता शिव का कंठ हार भुजंग लिए,आँखों में करुना और निष्पाप हंसमुख मुखाकृति...उन्हें देख मन में आया....
'''''अरुण कांति का एक योगी भिखारी, नीरव में आकार हुए खरे प्रखर तेज तब निहारते नारी....''''
....क्रंदन से ब्याकुल होकर
वहा उपस्थित सभी साधू शान्तो के पास गयी थी दिन भार .कोई जटा धारी तो किसी का दर्शन ही भयंकर .मेरे अभ्यंतर में एक असाधारण आकर्षण उन सिद्ध महात्मा के प्रति था जो एक प्रकाश किरण लेकर आगे आये.उनके दर्शन एवं उनसे वार्तालाप करने कि प्रबल इक्षा थी.परन्तु किसी ने भी मेरी ब्याकुलता नही समझी.सबो को प्रणाम कर अश्रुपूरित आँखों से सबो से मैंने बीड़ा ली.स्वाभाविक संस्कार वस नंदी के पास खरे श्वेत वस्त्र धारी महात्मा के चरण स्पर्श कर परनामी देने आगे बढ़ी.परन्तु हाथ के इशारे से प्रनामी लेने से मना कर दिया .तब अनायास उनकी आँखों की और देख मै अचंभित हो उठी .आँखों में धू-धू करती अग्नि पर मुख पर एक स्निग्ध हंसी.समझते देर ना लगी कि, jyotirling कि ज्योति अपनी आँखों में लिए ये अद्भुत महात्मा हंस रहे है.उन्होंने मुझे गर्भ गृह में शिवलिंग कि और देखने का आदेश दिया.
शिवलिंग को मैंने देखा पर स्वयं कुछ देख नही पाई,स्वयं कुछ कुछ समझ नही पाई.फिर उनके ही निर्देश पर मैंने मंदिर में प्रवेश किया.....
......इस बार ''ऊँकार ध्वनि का मधुर तान मेरे प्राणों में समा गया .प्रात :काळ जिस ध्वनि से कान फटने को हो आये थे उसी आदि ध्वनि से अब माधुर्य टपक रहा था.......
..........''.अशेष माधुर्य''.............

प्रचंड ठण्ड को भूल खाली पावँ ठन्डे पत्थर पर खरे हो मै देख रही थी कि....सामने भोला महेश्वर का अपूर्व रूप एवं उनके सामने उन्ही का रूप का प्रकाशमान सौम्य कांति स्वरुप महात्मा थे...
जब विदा का समय आया तो ह्रदय चीत्कार कर उठा.बारम्बार..भोला को कहा था.....
'''''हे केदार नाथ आप ही शिव है''''.....इसकी उपलब्धि हो सके..''
उन्होंने मेरी बिनती सुन ली.....
''''''जाग्रत शरीर में शिव का शक्छात्कार जैसे केदार नाथ जी ने स्वयं करवाया हो.,जिसका हाथ पकढ़ कर इस जीवन सागर से पर उतरना है''
'
हाथ जोढ़ विनीति की.....
...............
मुझे मत छोढ़िए...
गंभीर स्वर में उत्तर मिला..
..
..'''' प्यासे को नदी किनारे ले जाना मेरा काम है,पानी तो उसे ही पीना है....''''
लगा की हिमालय की हंसी रहसयमय हो उठी.महात्मा के चरण कमल अपने अश्रू जल से भिगो हजारो बार अनुरोध किया की ,
......
.'''''''''हे महात्मन,अति कस्ट के बाद बाबा केदार नाथ जी की दया से आपको पाया है.इस अभागन को अपने चरण में शरण दीजिये...'''''' '''''बाबा '''का आदेश पाने पर.................................
.......शांत पर गंभीर वाणी में बोल उठे-
''''''''''''''
बेटा.!जबसे तुमने पहाढ़ पर चढ़ना प्रारंभ किया,तभी से तुम्हारे लिए बाबा का आदेश हुआ था.साधारणतया मै संध्या समय निकलता नही हूँ,परन्तु परम पिता के निर्देश से ही मै तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था...............''''''''
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
""""""""""""""""""""""""""""""
-'''''''''''''शिवपुत्र---एक परिचय'''''''''''''''''''''''
[
2 ] '''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''
'''''भारत वर्स की धरती पर वैसे तो साधुओ की संख्या विशाल है,परन्तु सत्य पथ [आज की भोग वादी दुनिया का मनुष्य का उपयोग पार्थिव भोग वासना तृप्ति हेतु करता है ,तो उसे ''सत्य पथ के पथिक ''की संज्ञा नही दे सकते..] के साधक लगभग नगण्य है.सत्य पथ के साधक यदा कदा ही मिलते है.मानव शरीर में ऐसे ही एक साधक है,जिन्हें हम प्रेम से ''
गुरु जी'' कहते है.उनके नाम की जिज्ञासा कहने पर एक मधुर मुस्कान बिखेर कर पूछते है-
'''कौन सा नाम पूछ रही हो .?इस शारीर का या मेरा...?'''
''''इस तरह के उत्तर का कारण है और वह यह है की पूर्व में भी मेरा जन्म कई बार हुआ है जो इसी प्रकार श्रेष्ठ था और जीवन बदलने के साथ साथ नाम भी तो बदलता रहा है.इस जन्म में
मुझे पूर्ण चैतन्य की प्राप्ति हुयी है इस लिए तुम लोग मुझे ''शिवपुत्र''अथवा '''शिवपुत्र शुकदेव चैतन्य ''के नाम से पुकार सकती हो...''
''गुरु जी''अपने जीवन के विषय में कुछ नही कहना चाहते,फिर भी समय -समय पर वार्ता लापो में या किन्ही संदर्भो में जो कुछ भी उनके सम्बन्ध में समझ पाई उसे लिपि बद्ध करने की चेष्टा मात्र कर रही हूँ.उनका जन्म पुण्य भूमि वाराणसी के समीप एक ब्यावासयी परिवार में हुआ........
'''मुझे भी तुम्हारी ही तरह भाई-बहन -माता -पिता एवं परिजनों का स्नेह मिला..अन्य शिशुओ की भांति मै भी नटखट था.माँ का वात्सल्य मयी आँचल पाकर बढ़ा हुआ.जीवन की शुरुआत में कोई असाधारण लक्ष्य नही था..माँ ने कहा था की जब मै नन्हा बालक था तो नर्मदा की परिक्रमा करके आये एक सन्यासी '
'श्री आनंद स्वामी सरस्वती ''ने भविष्य वाणी की थी कि ---
'''''''
यह बालक एक दिन वेद की ब्याख्या करेगा...स्वयं शिव इसके ह्रदय में वास करते है'''''
'''हिमालय'' से आये और अनेक संत मुझे देख कर गये.जब मेरी उम्र ८--१० वरस की हुयी और मै अपनी माँ के साथ किसी जाग्रत मंदिर या देव स्थल जाता तो मन उद्वेलित हो उठता..मै देखता की मूर्ति से देवी या देवता बाहर निकल मेरे सामने खरे हो जाते और मुझे प्रणाम करते.कभी कभी तो मै बेहोश भी हो जाता.मेरी पूज्य माँ [अम्मा]सब समझती थी.मेरे बारे में उन्हें पहले से ही सब कुछ ज्ञात था,इसलिए अन्य बच्चो की अपेक्षा उनकी द्रिस्टी मेरे लिए कुछ भिन्न थी...
'''''''''प्रकृति के नियमानुसार मै भी बढा हुआ.पढाई-लिखाई-ब्यायाम-बंधू -बांधव,परिवार के सदस्यों के साथ आनंद भरा जीवन ब्यातित किया.बचपन-किशोर अवस्था एवं यौवन के दिन अन्य बच्चो की ही भांति एक दम सामान्य थे. मनोबिज्ञान की पढाई कर देश और मात्री भूमि की सेवा करने भारतीय सेना में अपना योगदान दिया.प्रकृति का अद्भुत खेल-.उसके बाद संसार के नाना प्रकार के झंझटो ने मुझे गहरी चोट पहुंचाई.जीवन में पहली बार अनुभव हुआ कि किस प्रकार परम मित्र और तथा कथित अपने लोग शत्रु हो जाते है.
मेरी माँ[अम्मा ]का अनुरोध अनसुना कर मेरे समाधिस्थ शारीर को मृत घोषित कर जला देने का आयोजन भी कई बार हुआ था.उस समय एक दिन जिन्होंने मुझे संसार का त्याग करने हेतु बाध्य किया था उनसे मुझे कोईशिकायत नही है.एक अर्थ में उन्होंने मेरा परम कल्याण किया है.वे मेरे परम मित्र है.उनकी निक्रिस्ट शत्रुता ने मुझे झिंझोर कर रख दिया और मन में कही गहरे वैराग्य उत्पन्न हो आया.२८ वरस की आयु में ही समस्त सांसारिक कामना-धन-संपत्ति और वासना का पिंजरा तोर हिमालय परम पिता के आश्रय में चला गया.उन परिजनों द्वारा दिया गया निर्मम दुःख मेरे जीवन में असीम आर्शीवाद और परम आनंद की वर्सा कर गया... ''''संसार में रहते हुए ही मेरी कुंदिलिनी शक्ति का जागरण हो चूका था और सभी चक्रो का भेदन भी हो चूका था ..पुर्व जन्म में किये गये तपस्या का फल हठात जाग्रत हो उठा ,तथा जहा से छूटा था वही से आगे की यात्रा शुरू हुयी.कभी कभी शारीर में इतनी अधिक गर्मी और उर्जा का संचार होता की घर में रह नही पता--रोतंग पास-नैनी ताल व नेपाल , हिमालय जैसे ठंढे प्रदेशो में जाकर रहने का मन करता.शीत काल में भी होटल के कमरे में सारा दिन समाधि लगा बैठा करता था क्योकि संसार में रह कर इस तरह ध्यान में बैठने का सुअवसर नही था. और आस पास के लोग मुझे समझ ही नही पाते थे.'''
''''इसके बाद वह शुभ घढ़ी आई--सब छोर हिमालय चला गया.पीछे छुट गया विलाशिता भरा घर,बढा ब्यवसाय,मेरा प्रिय मोटर साइकिल,कराटे का ब्लैक बेल्ट,बंधू -बांधव और
जन्म दात्री परम प्रिय ''अम्मा'...''
गुरु जी अपनी माँ की अंतिम संतान है.करोढ़ पति घर के होते हुए भी दारिद्रय देखना पढ़ा है.माँ बेटे को अपमान लांछना एवं अनेक दुखो का शिकार होना परा.दुःख के दिनों में दोनों के आपस की नजदीकिया चन्दन जैसा शांत प्रलेप कर गया जिससे माँ बेटे का स्नेह और बढ़ गया.सभी दुखो को अपने में समेत लिया.किसी के प्रति कोई द्वेष नही,कोई गिला नही.उन्होंने उन सभी निर्दयियो को बारम्बार धन्यवाद् दिया क्योकि उनके निष्ठुर प्रहार और कलंक ने गुरु जी को
''''बाबा --केदार नाथ '''के दरबार में पहुंचा दिया.परम पिता के आश्रय में स्थायी आसन की प्राप्ति हुयी है.बाद में पता चला की इन सभी आघातों के पीछे परम पिता की इक्षा ही कम कर रही थी.'
''''ईश्वर ''' जब जब इस धरती पर आये है ,बहुत ही साधारण मनुष्य के रूप में आये है---जैसे की हमारे मध्य ये गुप्त साधक. ये अपने सन्यास व तपस्या के विषय में कुछ नही कहना चाहते.फिर भी बहुत प्रयास से विभिन्न समय में थोरा बहुत जान पाई....''
''''हिमालय में यमुनोत्री के पीछे झरने के पास जंगलो से घिरा निर्जन एवं भयंकर अन्धकार मय गुफा में कठोर तप शुरू किया--एक ही आसन में गंभीर साधना में लीन हो गये..कुछ दिन पहले जो एक करोढ़ पति ब्यावासयी घर का लढ़का था-एक कठोर तपस्वी बन गया.-तपस्वी स्वभाव जाग्रत हो उठा.न जाने कितने अर्शे बाद ''शिवपुत्र''का ध्यान भंग हुआ.कठोर साधना में उत्तीर्ण हो छठे चक्र के स्थान में शिवत्व को प्राप्त किया.सूर्य तारे-चंद्रमा आदि नक्षत्रो के नभ मंडल में बहुत ही तीव्र गति से भ्रमण किया.वही अनुभूति एक असीम आनंद के रास्ते उन्हें बहा कर वहा ले गया.जहा दिन काल एकाकार हो जाता है और केवल आनंद -असीम आनंद की अनुभूति होती है.स्थूल शारीर में ही प्रत्यावर्तन के बाद सस्त्रार के भेदन की आनंदानुभूति का अनुभव अत्यंत कठिन है..'''
'''ध्यान में ही उनका दिन रात और महिना बीत जाता.कभी ध्यान टूटने पर आकाश में चाँद तारो की स्थिति का अनुमान लगाते की कितना समय बिता होगा..?पहारो में रहने वाले निर्धन लोग इस दुर्गम गुफा में कभी कभी लकरी का बण्डल रख जाते.विशेष तह उन्हें एक बृद्ध माँ की याद आती है.दुःख व् गरीबी के अनेको कस्ट रहते हुए भी साधू महात्माओ की सेवा का भार ईश्वर ने जैसे इन गरीबो को ही दिया है.गुरु जी से छिपा कर कभी कभी अपने खेत का चना ,आलू वे वह रख जाती.ध्यान टूटने पर यही था भगवान का दिया प्रसाद. उन पहारियो को किसी सिद्धि या यश की आकांछा नही होती.ऐसा प्रतीत होता है की भगवान स्वयं इन दरिद्र पहढ़ियो के रूप में हो.ये पहाढ़ी लोग सच्चे साधको को पहचान जाते है और यथा साध्य उनकी सेवा करते है.गुरु जी ने अपने कोल्कता प्रवास के समय चहल कदमी करते समय वार्ता लापो के दौरान इन पहढ़ियो के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की.''''''
''''''''''''गुफा में इतने दिन थे की वे अपनी मात्री भाषा पर्यंत भूल गये.गुफा से निचे उतरते समय एक ब्रिद्ध आदि वासी परिवार के अतिथि थे,ब्रिद्ध दंपत्ति ने यथा साध्य रोटी दल की ब्यवस्था कर गुरु जी के सामने रख ग्रहण करने का अनुरोध किया.भोजन का स्पर्श करते ही गुरु जी को समझते देर नही लगी की वह परिवार दो दिनों तक भूखा रह कर ही उनके लिए यह ब्यवस्था कर सका था.उस ब्रिद्ध सज्जन का अपनत्व ,उनकी भक्ति और सेवा भावना याद आते ही उनकी आँखे नम हो उठती है.आज ऐसी घटना विरले ही देखने को मिलती है.किसी वास्तु की इक्षा नही,मात्र साधू सेवा हो इन निः स्वार्थ सेवा का लक्ष्य था-सेवा परायण मानव कुल धन्य है.इसके बाद यमुनोत्री से जब निचे उतरे और अपनी जटा लिए बस में बैठे तो उनके शारीर और जटा से निकलता बिद्युत प्रवाह इतना शक्ति शाली था की बस एक इंच भी नही चल सका.स्टार्ट ही नही हुआ.जिस किसी भी बस में बैठते सबकी एक ही दसा..अन्तात्वो गत्वा रास्ते में बैठे नाई से अपनी जटा कटवा ली और तभी बस की यात्रा संभव हो सकी...'''
''''किसी अज्ञात आकर्षण से खींचे हुए वे यमुनोत्री से केदार नाथ चले गये.केदार नाथ में परम पिता का आश्रय मिला और परम पिता में लीन हो गये..'''शिवपुत्र''...पिता पुत्र के मिलन से केदार नाथ में आनंद उत्सव शुरू हो गया.शिव का कंठ हार हजारो फन फैला कर नृत्य कर उठा.शिव की जटा से माँ गंगा अनेक धाराओ में कल्लोल करती हुयी झरने लगी.चंद्रमा की किरणों से मोह मयी हो उठी.हिमाच्छ्दित पर्वत श्रेणी,शिव की हजार आँखे आनंद ज्योति बिखेरने लगी.ज्योतिर्लिंग की ज्योति शिवपुत्र की आँखों में जाकर बस गयी तथा होठो पर अनुपम हंसी का आभास हो रहा था.''''''''
''''''परम शांति की प्राप्ति के उपरांत अक्षय तृतीय से दीपावली [काली पूजा ]तक [ये ही कुछ महीने मंदिर के द्वार खुले रहते है] वे केदार नाथ में रहे.तत्पश्चात महारास्ट्र में बाघ-चिता-सांप एवं अन्य जानवरों से भरे जंगल में एकांत वास किया.जंगली जिव जन्तुओ ने इन्हे कभी कोई हनी नही पहुंचाई.जंगल में कठोर साधना के बिच किसी अपने के बियोग के आभास से विचलित हो उठे.......
.'''''''गृह त्याग करने के समय मैंने अपनी माँ को वचन दिया था कि उनके देहावसान के दो दिन पहले लौट आऊंगा.'''''
... अपना वादा याद हो आया --ध्यान भंग हो गया.द्रुत गति से घर वापस आ गया.जब घर पहुंचा तो देखा की माँ ने अन्न जल त्याग दिया था.माँ को अपनी छाती से चिपका कर भूख प्यास भूल सोया रहा.पुत्र विहीन वृद्ध माँ के आंतरिक दुःख को मैंने अपने अन्दर समेत लिया था.माँ ने अपने जीवन में अनेक कस्ट उठाया था .संसार में मेरी अन्ना पूर्ण रूपी मेरी माँ कितनी बढ़ी साधिका थी किसी ने जाना नही पहचाना न ही..माँ मेरा प्रथम गुरु तथा प्रथम शिष्य थी.संसार का शोक -ताप-सहन कर माँ इस संसार से चली गयी .मृत माँ के शारीर को छोर मैंने शिष्य द्वारा लाया गया भोजन ग्रहण किया.मुझे भोजन करते देख सभी सम्बन्धी परिजन आदि आश्चर्य चकित थे की हिमालय से आया सन्यासी पुत्र अपनी माँ के महा प्रयाण के बाद भर पेट भोजन कर रहा है.----------
'''''''''''मै किसे यह रहस्य समझा पता या कौन समझता...???..समझाने का कोई प्रयोजन भी नही था..???.'''''
'''शारीर छोरते ही माँ को मैंने अपने ह्रदय में समेत लिया.मेरी अम्मा ने अपने ''भैया '' [माँ मुझे इसी नाम से पुकारती थी.]... के विरह में अनेक दिनों से भोजन नही कीया था.रात दिन चिंता से छटपटा रही थी---असीम दुःख पाया था....संसार में किसी ने भी उनका दुःख बाँटने की कोशिश नही की.इसलिए शारीर त्याग करने पर जब तक जन्म नही ले लेती तब तक कही जाने नही दूंगा.मेरी सत्ता में लीन हो कर रहेंगी.'''
''''अनेक बाधाओं के बीच माँ का श्राद्ध कर्म संपन्न हुआ.मीत भाषी गुरु जी अपनी माँ की बाते करते करते उन दिनों की स्मृतियों में खो गये.बाद में बताया-------
-'''कुछ ही दिन हुए मेरी माँ का पुनर जन्म हुआ है.मेरी माँ दूसरी बार छोर कर चली गयी [अशरीरी ने पुनः शारीर धारण कर लिया.]उस दिन माँ की शोक से मै पुनः आछन्न हो गया.वह दुःख कितना भयानक था.किन्तु माँ को तो जन्म लेना ही था.परन्तु उनका यही जन्म अंतिम जन्म होगा.अपनों के विषय में सब कुछ जान लेना,कितना दुःख दाई है यह तुम्हे किस तरह समझाऊ.मै अपने और माँ के सम्बन्ध में एक रहस्य की बात बतलाता हूँ.इस जन्म के पूर्व अम्मा के गर्भ से मै बीस -२० बार जन्म ले चूका हूँ और यह उनके गर्भ से २१ वा जन्म है...
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

''''''''''''एक अद्भुत दीक्षा ''''''
[
3 ]
''
गुरु जी का दृढ संकल्प था कि...
.......
''''वे परम पिता शिव से ही मंत्र लेंगे एवं ''आदि गुरु'' को ही '' गुरु'' स्वीकार करेंगे. उनकी यह इक्षा पूर्ण भी हुयी'''.......
'
श्री कृष्ण जन्मास्टमी के दो दिन पूर्व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के एक मात्र ''''परम गुरु ,मेरे पिता श्री एवं शक्ति के संचालक श्री केदारनाथ जी''', ने स्वयं मुझे ''दीक्षा '' दी....
...उस दिन प्रचंड तूफान,वृस्ति और हिमपात हुआ था.जिससे मंदिर के यात्रियों कि भीढ़ नही थी....बहुत ही कम लोग थे.मै केदार नाथ जी के मंदिर के बाहर धुनी के पास बैठा था......
'''बाबा ''कि आरती प्रारम्भ हुयी थी, डम-डम डमरू बज रहा था.हठात मेरा सम्पूर्ण शरीर ज्योतिर्मय हो उठा एवं उर्जा का प्रवाह होने लगा .शनै :शनै : मै [मेरा ज्योतिमय शरीर ] शिवलिंग के भीतर प्रवेश कर लीन हो गया.मेरा ज्योतिर्मय चेहरा एक विराट आकार में परिवर्तित हो गया और मै एक उर्ध्वा त्रिकोण में प्रविष्ट हो गया.'''''बाबा'''मेरे सामने ही ''शुन्य '' में आसन पर विराजमान थे.उनका प्रकाश कभी शुभ्र श्वेत तो कभी नीला था.केदारनाथ जी ने स्वयं '''आकाश वाणी ''' द्वारा मुझे ''दीक्षा'' दी......
.........'''''''समस्त केदार खंड ''परम पिता'' के नाद ध्वनि से गुंजायमान हो उठा..त्रिकोण का अंतर भाग इस महा मंत्र से परिपूर्ण हो गया.मेरे सम्मुख शुन्य में इस जगत के एक मात्र ''गुरु सच्चिदानंद मेरे पिता श्री'' थे..त्रिकोण के अन्दर जैसे किसी चुम्बकीय शक्ति ने पकढ़ रखा हो.लगभग ४५-५० मिनट से अधिक ही वह महा मंत्र गुंजायमान होता रहा.बहुत देर के बाद मेरा ध्यान सामान्य हुआ....''
........
..इस प्रकार परम पिता से ही दीक्षा लेने का संकल्प पूरा हुआ और उसी दिन से मै हुआ ''श्री केदारनाथ जी का '''शिवपुत्र'''............
......
.'''परम पिता'' से '' दीक्षा'' लेने के दो दिन बाद एक स्थूल शरीरधारी ''गुरु'' आचार्य सुमन जी'' से पुन : दीक्षा मिला....''
'''''श्री कृष्ण जन्मास्टमी के दिन.हिमालयवासी ये महात्मा १८०००-से -२०००० फिट कि ऊँचाई पर तपस्या करते है.उनका प्रथम और अतिम शिष्य मै ही हूँ.उनके पास मुझे गायत्री शक्ति कि प्राप्ति हुयी.गायत्री शक्ति---गुरु जी कि ब्याख्या के अनुसार __
.
...'''.भू --पृथ्वी'',,,''भुव :---ब्रह्माण्ड '' एवं '' स्व :_''_ ''स्वयं'' है.
''''श्री कृषण जन्मास्टमी के दो दिन पश्चात ....
'''''माँ गायत्री'' ने मेरे सामने आकार मेरे शरीर में आसन ग्रहण किया.मैंने '' माँ गायत्री'' से अनुरोध किया कि वे ''अपना चरण'' मेरे ''मस्तक'' पर रखने कि कृपा करे.ह्रदय में स्थापित करने से नेत्र दोष लगता क्योकि ह्रदय का स्थान नेत्र से निचे है.इसलिए ''माँ '' का ''श्री चरण'' मस्तक पर स्थापित किया.........
....
.इसके बाद '''माँ कामख्या''' की शक्ति ''' भी मुझे मिली.....
...इसी बिच मेरे सभी चक्र जाग्रत हो उठे.मेरे मस्तक के ऊपर उर्जा का करेंट रूप में ''माँ गायत्री ''की शक्ति का चक्राकार में पुरे ब्रह्माण्ड में घुमती रहती है.
मंत्र रचना के अधिकारी तो परम पिता 'शिव' ही है.अब स्वयं 'परम पिता शिव' ने 'गुरु जी ' को ''मंत्र रचना का अधिकार'' दिया है...
{शिवपुत्र
साव धान करते हुए कहते है कि...''सारे मंत्रो के जप का अधिकार सबो को नही दिया जा सकता.सिर्फ उन्ही मंत्रो का जप करे,जो जप के अनुकूल हो .अन्यथा अनिष्ट होता है..}
..जिस प्रकार संतान उत्पत्ति के हेतु माता-पिता दोनों कि उपस्थिति आवश्यक है.उसी प्रकार
.....शिवपुत्र को क्रियाशील करने हेतु ''परम पिता'' एवं ''परमा मात्रिका शक्ति'' दोनों उपस्थित होकर उन्हें मार्ग निर्देश देते है.....
''परम पिता'' एवं ''परम माता'' दोनों 'गुरु जी ' के शरीर में निवास करते है.''
----
'''माँ'' का दसो रूप भी इनके साथ ही रहता है.'शिवपुत्र ' को ''पूर्ण जागरण '' की प्राप्ति हुयी है.इसलिए पूर्ण जाग्रत चेतना में वे शरीर कि उर्जा प्रवाह व ज्योति से स्वयं ही ज्योतिर्मय हो जाते है,जिसके फल स्वरुप परम पिता किलक [ मात्रिका समूह का बंधन अर्थात प्रकृति ]खोल देते है.अर्थात ''गुरु जी' के शरीर में उर्जा शक्ति का प्रवाह ज्वालामुखी की तरह फट कर प्रवाहित होने लगा तब आदि गुरु शिव ने किलक मुक्त कर दिया.
'''
''''''''साधक हो उठे पूर्ण ज्ञानी ----मंत्र द्रष्टा एवं मंत्र रचयिता .''''
इस प्रकार '''बाबा'' ने ''
'शिवपुत्र''' को...
'''''''''
'किसी मानव शरीर धारी को प्रथम ''''अघोर''' पद दिया ''''' ......
[ विशेस:--''
''अघोर पद'''----''शिवात्व'' कि वह ''परम अवस्था'' है जो ''शक्ति'' [सत्य] के सभी रूपों का अपनी ''इक्षा'' मात्र से ''नियंत्रण और सञ्चालन'' करता है या ''करने कि क्षमता'' रखता है.''जो स्वयं कि इक्षा से '''मात्रिका समूहों का विखंडन''' कर दे और उन पर '''पूर्ण नियंत्रण '' स्थापित कर ले.यही योग्यता काळ क्रम में '''माँ कामख्या और उनके दस रूपों'' को मुक्त करने का कारण सिद्ध हुआ..]...
''परमात्मा'' से ''गुरु जी'' ने किसी भी भौतिक भोग,किसी विशेस सिद्धि की अथवा यहाँ तक कि मोक्ष कि भी याचना नही की .निष्काम तथा पूर्ण शरणागत होकर ''स्वीकार' भाव से अपने को ''समर्पित'' कर दिया .ऐसे 'समर्पण' के फल स्वरुप '''परम पिता केदार नाथ'' जी ने 'गुरु जी' के सभी सातों चक्रों को जाग्रत कर उन्हें ब्रह्माण्ड की शक्ति के साथ जोर दिया.''
''
इतनी बरी उपलब्धि ,''परमात्मा '' की इतनी बरी कृपा के उपरांत भी 'गुरु' जी एकदम ''साधारण मानव शरीरधारी'' की तरह ''समाज'' में रह रहे है,जो साधारण तया असंभव है,क्योकि इतने बढ़े पुरस्कार का ''अहं'' तो मनुष्य को प्रभावित करता ही है.परन्तु 'गुरु' जी को अहं तो कही छू भी नही पाया.इस प्रकार ''परम पिता श्री केदार नाथ जी'' से '' दीक्षित'' हो ''एक पद एवं चेतना { अवस्था}'' प्राप्त हुए है.
''''
'''शिवपुत्र'', धरती पर एक मात्र शरीर धारी '''अघोर''''...
'''''''
परम पिता के आशीर्वाद धन्य अघोर.''''''
''''''अपने '''गुरु'' श्री केदारनाथ जी'', के चरणों में बारम्बार प्रणाम कर 'गुरु जी' ने अवरूद्ध कंठ से कहा था................
'
''''''''मेरे ''आदि पिता''',सम्पूर्ण विश्व के ''एक मात्र गुरु'' केदार नाथ जी'' से '''मंत्र'' लेकर व दुसरे शब्दों में '''उनसे दीक्षित''' होकर '''''शिवपुत्र'' का '''जीवन धन्य '''हो गया.उस दिन पुरे हिमालय में उत्सव मनाया गया.तत : पर''''' मेरा जीवन आदि केंद्र से जूढ़ गया..'''''.
''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''
'''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''
''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''

'''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''
''''''प्रकाश के पथ प्रदर्शक '''''
"""""""""""""""""""
[ 4 ]
....अपनी शक्क्ति और प्रेम की
वर्षा सावन -भादो के बादल व सूर्य की किरणों की भांति ''शिवपुत्र सदा करते ही रहते है.साधारण से साधारण मनुष्यों {जिन्होंने कभी ध्यान साधना ना भी की हो.} को भी ,इक्षा ब्यक्त करने मात्र से ही,वे अपनी उपलब्धियों से असाधारण शक्ति का अधिकारी बना देते है..खुले कंठ से कहते नही थकते......
........
''''मांग लो, ले लो, जितना ले सको और आगे बढ़ो..''''
.....शिवपुत्र का प्रेम,इनके संसर्ग की आशा मात्र से ही प्राप्त हो जाता है.आज स्वार्थी और भौतिक वादी संसार में ईश्वर पथ के इन ''सच्चे साधक व् पथ प्रदर्शक ''का अपना कोई स्थान,आश्रम अथवा धन-संपत्ति नही है.बंजारों की भांति इस संसार में रह रहे है.पूछने पर अति प्रसन्न होकर उत्तर देते है..........
'''''क्या मै इतनी छोटी चाहत लेकर ''परम पिता '' के दरबार गया था..?.यह चिंता तो उनकी {परम पिता की }है.सर के ऊपर नछत्रो भरा आकाश और शस्य श्यामला यह धरती ही मेरा घर है.''''
इस धरती पर फैले अन्धकार को मिटा कर मानव जाती को प्रकाशमय पथ पर ले जाने हेतु ही ''शिवपुत्र का प्राकट्य '' हुआ है...
'''उनके हाथ में वह दीप शिखा है जिससे यह हो सकेगा....'''''
....जब जब ऐसे अवतारों का अवतरण यहाँ हुआ है,तब तब उन्हें समाज का दुह्सः अत्याचार सहना परा है.
''''''ईसा मसीह-मोहम्मद-राम कृष्ण जैसे अनेक उदाहर्नो से इतिहास भरा परा है.अन्धकार को प्रकाश का भय हमेशा रहता है.इसलिए संसार में ब्याप्त दानवीय शक्ति ईश्वरीय प्रकाश को बुझाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है.
''इतिहास' स्वयं को दोहराता है.''पुराणी कहावत है.इसको चरितार्थ करते हुए इस युग के भागीरथ गुरु जी ,ने भी अनेक दु:ख ,अत्याचार, झेले है.ऐसे लोगो की कमी नही है,जिन्होंने ने इनसे ही प्रकाश की और बढ़ना सिखा और निर्दय हो कर अपने ही पथ प्रदर्शक के ऊपर निर्मम आघात किया.ऐसे नीच कार्य मनुष्य को पुन: अंधकार की खायी में धकेल देते है..ऐसो को साथ लेकर चलना अति कठिन है.गुरु जी को अति कठोर होकर ऐसे लोगो को अपने से दूर हटाना परा है,जिससे वे सभी प्रकृति के नियमनुसार अपने -अपने प्रारब्ध का फल भोग सके...
.........
गुरु जी के क्षमा करने पर भी महाकाल ऐसो को कभी क्षमा नही करते..
....कुछ लोगो ने,यद्यपि शक्ति संपन्न पर स्वभाव से भोले गुरु जी को माध्यम बना कर धर्म के नाम पर ब्याव्साय करना चाहा ,परन्तु जब देखा की भौतिक संपदा अर्जन करना संभव नही हो पाया तो उन लोगो ने गुरु जी के साथ दुर्ब्याव्हार किया.इतना ही नही गुरु जी अपमान का कढ़वा घुट भी पीना परा.
...इनकी हत्या का बारम्बार षड़यंत्र रचा गया .......
''''''''''शक्ति संपन्न अवतार के विरूद्ध षड़यंत्र कितना प्रभावी हो सकता है.....?''' ..सब नाकाम....
वास्तव में गुरु जी जैसे उच्च साधक स्वभाव से इतने सरल और दयालु होते है कि साधारण मानव के कलुषित स्वभाव को परख नही पाते और उसी का लाभ मनुष्य उठाना चाहता है क्योकि वह अपने कलुषित विचार और ब्याव्सयिक बुद्धि से ही अपना स्वार्थ सिद्ध कर सकता है.चाहे वह रास्ता अध्यात्म से हो कर ही क्यों ना जाता हो...जब गुरु जी को ऐसा अनुभव हुआ तो उन्हें बार अचम्भा हुआ.फिर भी गुरु जी उन्हें धन्यवाद् देते है.उनका कहना है कि.... ...
..........''''''
इन्ही लोगो ने उन्हें इस संसार कि वास्तविकता का परिचय और अनुभव कराया है.''''
गुरु जी ने अपनी सात [ ७ ]डायरियो में गुफा में बिताये अपने जीवन,कठिन तपस्या एवं उससे हुयी उपलब्धिया यथा प्रकृति का गूढ़ एवं गोपनीय तत्व तथा रहस्य और उनके अपने अनुभवों का विस्तृत विवरण लिखा था.परन्तु प्रकृति अपना रहस्य गोपनीय ही रखती है.,यह उसका नियम है.कारण उसका यह है कि
उन रहस्यों के प्रकाश में आ जाने से उनका अवांछनीय प्रयोग अनिष्टकारी हो सकता है....अत :प्रकृति माता ने स्वयं गुरु जी के ही हाथो उनके लिखे सातों डायरियो को जलवा दिया....कितना दुःख दायी होगा वह छन ...?
......
.शिव स्वरुप ....'शिवपुत्र'...असीम शक्ति और क्षमता के भंडार है.इसकी कल्पना हम साधारण मानव कर भी नही सकते.
''''''ईश्वर के साथ वार्ता-पूर्व जन्म कि स्मृति-असाध्य ब्याधियो से मुक्ति-इक्छा अनुसार एकाधिक व अनेक शरीर धारण कर लेना,स्थूल शरीर से सूक्षम शरीर धारण कर विचरण करना आदि उनकी क्षमताव के कुछ उदाहरण मात्र है.उनकी क्षमताओ का आंकलन करना आकाश के तारे गिनना व समुद्र का जल नापने के समान है...
........''''..असंभव है....सामान्य मनुष्य के साध्य के बाहर है..'''
गुरु जी इतने शक्ति संपन्न है कि इस भोग वादी दुनिया में सम्पूर्ण मानव जाती में परमात्मा के प्रति एक प्यास व् तृष्णा जगा कर उसे तृप्त करने कि असीम क्षमता है.उन्हें देख कर ऐसा नही लगता कि वे इतने उच्च कोटि के साधक है.क्योकि कोई ताम झाम नही.कोई बरा आश्रम नही,अनगिनत शिष्यों क़ी भीढ़ नही जो उन का गुणगान करे,किसी सुसज्जित मंच पर आसीन नही...........
............
'''श्वेत वस्त्रधारी ,सौम्य कांति,चमकता ललाट,प्रसन्न मुख मुद्रा.....यही हैं....
..............
'''''''''शिव स्वरुप '''शिवपुत्र'''...........
अपने सभी अनुयायियों से कहते नही थकते.......
......
.''''बेटा !.मुझे माध्यम बना कर साधना पथ पर आगे बढ़ो....'''''
..अपने साधको के बढ़े संबल है.हर पल उनके साथ,उनके पास,उन्हें मार्ग निर्देश देते हुए.अगर कोई अनुयायी शिष्य किसी संकट में पर जाता है, तो,ये सहारा देते हुए कहते है........

''''''''''''''''मै''''''हूँ'''''ना''''.........''''''''रे पगले....!

यह सुनते ही नये साधको कि साधना कि गति तीव्र हो जाती है.अपने शिष्य साधको को निरंतर परम पिता परमात्मा के चरणों कि और ले चलते है और बदले में क्या चाहते है....?????....कुछ भी तो नही.....
'''''''''''
सिर्फ जरूरत है......सम्पूर्ण समर्पण ''की ....

उनकी ऊँगली पकढ़ कर चलने से ही बेढ़ा पार....''''''''''

'''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''

(5) 'जाग्रत त्रिकोण'' (Jagrat Triangle)
…..यह सर्वविदित है कि, पृथ्वी की अपनी चुम्बकीय शक्ति {Magnatic Field } ,जिसका विस्तार उत्तर से दक्षिण की ओर है.उत्तरी ध्रुव {North Pole ] को धनात्मक {Positive } मेरु तथा दक्षिणी ध्रुव {South Pole } को रिणात्मक {Negative } मेरु कहते है.उत्तरी मेरु से बहिर्मुखी एवं दक्षिणी मेरु से अंतर्मुखी शक्ति {करेंट} का प्रवाह है.वास्तु बिज्ञान (Physics ) के अनेक सिद्धांतों में इस शक्ति की कल्पना है जैसेताढ़ितशक्ति, मध्याकर्षण शक्ति इत्यादीइस सदृश्य की अनुभूति कहाँ से हुयी इसे समझने के लिए त्रिकोण तत्व का आश्रय लेना होगा.

इस तत्व के अनुसार किसी सिद्धांत व धारणा को पूर्ण रूप से समझ लेना चाहिए,ना की किसी कल्पना पर आधारित हो..कट्टर युक्ति (Physics )वादी ””’नोबल पुरस्कार विजेता……..डाक्टर रिचर्ड फ़ाहेंम्यान. ”’ को अपने जीवन के अंतिम दिनों में प्राच्य दर्शन के इस रहष्य { mystic} व कल्पित तत्व की सर्वत्ता का ज्ञान हुआ था.उन्होंने कहा था..

””’युक्ति के बिना बिज्ञान नही होता यह सत्य है परन्तु युक्ति उसी सीमा तक दिखा सकता है,जितना किसी भी बैज्ञानिक सिद्धांत में युक्ति का उपयोग हुआ हो…बिज्ञान के नये नये चमत्कारिक अनुसन्धान करते समय युक्तिवाद का उपयोग हुआ है और उससे वह उन्नत से उन्नततर स्तर तक पहुंचा है.कभी-कभी बैज्ञानिको की पहुँच बिजली की चमक तक हठात हो गयी है,परन्तु यदि बिज्ञान को नई -नई उपलब्धिया प्राप्त करनी है तो प्राच्यदर्शन उसका मार्गदर्शन कर सकता है.””

डाक्टर रिचर्ड फ़ाहेंम्यान. के परामर्श पर यदि गंभीरता से विचार करे तो उसमे गुरु जी के स्वीकार तत्व का निरूपण ही मिलता है..

अब हम देखेंगे की ये भौतिक शक्तिया अद्भुत शादृश्य जिसे बिज्ञान ने ही सामने लाया है,परन्तु जिसका कारण बिज्ञान को पता नही चला है.वही पर गुरु जी के मौलिक तत्व,जो उनका अपना है.हमे नये मार्ग की ओर इशारा करता है.

हमारे शक्तिक्षेत्र का स्वरुप गुरु जी ने साक्षात् किया है , उसकी वे निम्त लिखित रूप में ब्याख्या करते है….

””””’अर्धनारीश्वर ”इस धरती पर मानो लेटे हुए है.जिनका ”सहस्त्रार केदारनाथ” व उत्तर मेरु Positive Magnatic Field एवं दक्षिण मेरु Negative Magnatic Field ''कामख्या ”(कामरूप -आसाम) है,जिसे 'योनी क्षेत्र' (महायोनी पीठ) भी कहते है-

””””””मूलाधार जाग्रत होने पर जिस सक्रिय शक्ति की सृष्टि होती है,उसका क्रिणाक्षेत्रयोनी क्षेत्र हुआ…[सृष्टी क्षेत्र ].”’

”” केदारनाथ आध्यात्मिकता का चरम क्षेत्र है और कामख्या शक्ति व 'तंत्र' (तकनिकी) का क्षेत्र है..''

अर्थात हिमालय का पश्चिमी सिरा "केदारनाथ " धनात्मक क्षेत्र जो मुक्ति प्रदान करता है.शरीर में इसका स्थान आज्ञाचक्र से सहस्त्रार तक है.

दूसरा हिमालय का पूर्वी सिरा 'कामख्या' रिणात्मक चुम्बकीय क्षेत्र जिसका बंधन सृष्टीकारी है.एवं शरीर में इसका क्षेत्र स्वधिस्थान से लेकर मूलाधार तक है.

केदारनाथ मुक्ति का स्थान.उर्ध्वगामी शक्ति उत्पन्न होता है और ''ॐ '' इसका क्षेत्र…

''कामख्या'' शक्ति का भंडार है किन्तु यह बंधनकारी है.यहाँ अध् :गामी शक्ति की उत्पत्ति होती है. और ”अहम” इसका क्षेत्र है

”””.कामख्या क्षेत्र में अहंकार भाव उत्पन्न होता है.यहाँ पर नाना सिद्धिया मिलती है,जो ईश्वर प्राप्ति के रास्ते में बाधा बनकर खड़ी हो जाती है. क्योकि साधक प्राप्त हुयी सिद्धियों से उत्पन्न अहंकार में बंधकर रह जाता है,अपने जीवन में आगे की ओर अग्रसर नही हो पाता.

..”माँ” यहाँ पर साधक की परीक्षा अनेक तरह से लेती है.

छोटो-मोटी देवी के रूप धारण कर माँ की गणिकाएँ..साधक को छोटी मोटी सिद्धि (शक्ति) प्रदान कर देती है.और देखती है कि, साधक उसी से संतुस्ट होकर मार्गभ्रष्ट हो जाता है या ईश्वर प्राप्ति हेतु तड़प और प्यास भी है..

'''केदारनाथ '' और ''कामख्या'' का मध्यवर्ती क्षेत्र शुन्य क्षेत्र { Neutral } कहलाता है.

.यहाँ पर श्रोतशक्ति का प्रवाह बहुत ही तीव्र है.पूर्ण जाग्रत साधक अपनी कुण्डिलीनी शक्ति के जागरण के बाद जब चक्रों का पूर्णभेदन कर परमावस्था को प्राप्त होते है,तो उसके बाद ही इस "शुन्य क्षेत्र " की उपलब्धि कर सकते है.
यहाँ तक की जाग्रत साधक अपने अनुयायियों को भी इस अवस्था की उपलब्धि करा सकते है किन्तु उसके लिए उनके प्रति पूर्ण समर्पण ओर स्वीकार नितांत जरूरी है…..

”शव” और उसके अन्दर ”इ”कार व शक्ति का पूर्ण विस्तार..”’
.धरती के इन दोनों क्षेत्रो { magnativ pole-केदार एवं कामख्या } की उपलब्धि गुरु जी को हुयी है.

इसलिए वे ही स्वयं इस धरती के ”जाग्रत त्रिकोण ”है.

”””””””””””’यह तृतीय कोण ”काशी ” है”””……

"केदार क्षेत्र " ______________ "कामख्या क्षेत्र"

{ आज्ञा चक्र से _ _ { स्वधिस्थान से
सहस्त्रार तक } मूलाधार तक} _
”काशी क्षेत्र”
{ अनाहत चक्र-ह्रदय }

…जो साधक अपनी शक्ति जाग्रत करके ब्रह्माण्ड के केंद्र से स्वयं को संयुक्त करते है वे स्वयं ब्रह्माण्ड के केंद्र बन जाते है.ये साधक "जाग्रत पुरुष" साक्षात् शिवपुत्र धरती के चलायमान त्रिकोण है.ये साधक चिन्मय काशी, जीवित रहते हुए प्रकृति की सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्ति की इक्षा से कार्यो का संपादन करते है व शक्ति की ईक्षानुसार कार्य करने की क्षमता रखते है.” ……
शिवपुत्र…..अवस्था में जाग्रत देहधारी” गुरु” जी धरती के दोनों केन्द्रों के साथ युक्त होने के कारण इक्षाशक्ति पर पूर्ण नियंत्रण करते है.ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार चुम्बक का निरपेक्ष क्षेत्र { Neutral Region }.अर्थात प्रकृति के आदेशनुसार इक्षा शक्ति द्वारा वे सूक्ष्म जगत में किसी भी प्रकार का परिवर्तन करने की क्षमता रखते है.
केदार और कामख्या के मध्य केंद्र इसीप्रकार जाग्रत शिवपुत्र के माध्यम से पृथ्वी पर अपने साकार रूप में नये नये परिवर्तन कार्य सम्पादित करता है.”’
..धरती का यह त्रिकोण इस प्रकार ”शिवपुत्र” के अपने वर्तमान अवस्था में पूर्ण जाग्रत होता है.इस त्रिकोण का मध्य कोण ”शिवपुत्र ”सीधे उर्जा शक्ति के माध्यम से एक ओर केदार नाथ ओर विपरीत दिशा में,कामख्या के संग युक्त रहने के कारण इस ब्रह्माण्ड में उपस्थित किसी भी प्राणी के संग योग शुत्र की रचना कर सकते है एवं उससे वार्ता भी कर सकते है क्योकि ”शिवपुत्र” वास्तव में अपने अभ्यंतर में पूर्ण जाग्रत ”अर्धनारीश्वर” शरीर के रूप में { जिसके मध्य पिता केदार नाथ और माता कामख्या एकाकार होकर रहते है.} स्थित रहते है.

ईश्वर प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा होती है अहंकार और अहंकार ही शक्ति का विलास हुआ.

इसलिए शिवपुत्र का स्वीकार ही इस वर्तमान जगत में ”शव’ {स्वयं} में स्थित शक्ति का पूर्ण जाग्रत क्रियात्मक परिणाम है.

अर्थात पुरुष ! द्रष्टा ! हैं तो निर्लिप्त ,परन्तु उनकी इक्षा है.उनकी इक्षा से ही प्रकृति रूप शक्ति का संपादन करती है.यही पर प्रकृति और पुरुष का मिलन होता है और यही सृष्टी तत्व का उत्कर्ष है,जिसका प्रादुर्भाव जीवो का जन्म ग्रहण ब्रह्मतत्व के रूप में ,जीवन में बिष्णुतत्व के रूप में और जन्मान्तर में शिवतत्व के रूप में होता है….

””यही है विश्व तथा ब्रह्माण्ड की लीला व कर्म संपादन.”””’

” गुरु जी” की मौलिक धारणा में उन्होंने पुरुष और प्रकृति का संयोग दिखलाया है.इस संपदा के उदगम तथा क्षमता के विषय में समझाया.

किन्तु इस ऐश्वर्या का यथार्थ और समुचित ब्यवहार तो मनुष्य को ही करना होगा ……….
”””””””’और उसका मार्ग है ”’स्वीकार”’. …

”’स्वीकार”’ एवं”’ ध्यान”’ के अतिरिक्त किसी अन्य माध्यम से कोई अनुभूति नही होने पर पुरुष की इक्षा अधोगामी हो जाती है.एवं जिव तत्व पुरुष शक्ति से छुद्र ब्यवहार करता है.यह ब्यवहार शक्ति का दुरूपयोग छोड़ और कुछ नही है.विलास ब्यवसन में जो शक्ति का अपब्यय होता है,उसकी अपेक्षा यह {जिव और पुरुष में }अंतर बहुत कम है.इसलिए इसे शक्ति का बिलास कहा जाता है.

.”पुरुष” की इक्षा उर्ध्वगामी नही होने से चक्रों का जागरण तथा भेदन संभव नही होता एवं ”मुक्ति ” भी संभव नही होता.””

”’शक्ति मनुष्य के अहम बोध की परीक्षा लेती है””

-छोटी -छोटी सिद्धिया देकर.वे देखती है की साधक का क्या लक्ष्य है ?. एवं जीवो का पथभ्रष्ट होने की संभावनाओ की परीक्षा लेती है.छोटी -छोटी त्रिप्तियो से यदि साधक की इक्षा समाप्त हो जाती है,तो वह अपने लक्ष्य से च्युत हो मार्गभ्रष्ट हो जाता है.इसलिए पञ्च इंद्रियों की तृप्ति से जिस प्रकार इक्षा समाप्त हो जाती है,छोटी सिद्धियों से अगर ‘अहम’ बोध की तृप्ति होती है तो उसका परिणाम एक ही है–ईश्वर की प्राप्ति नही होती.

जो अपनी इंद्रियों की तृप्ति से ही अपने आपको पूर्ण समझता है उसे ही हिन् या पतित जीव कहते है.

उपर्युक्त सिद्धांतो से पता चलता है कि छोटी सिद्धियों से जिनका अहं बोध तृप्त होता है उनकी मुक्ति असम्भव है.क्योकि,उस अवस्था में इक्षाशक्ति का उर्ध्व प्रवाह असंभव हो जाता है तथा चक्रभेदन की सभी सम्भावनाये समाप्त हो जाती है.

””’यहाँ पर जीव अपने क्षुद्रबोध द्वारा निर्देशित होकर पथभ्रष्ट हो जाता है और वह ईश्वर के पास नही पहुँच पाता.

”’ अस्तु,शक्ति प्रवाह को उर्ध्वगामी रखने हेतु साधक को किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए..?

""शिवपुत्र”", त्रिकोण के निरपेक्ष केंद्र में रहते हुए भी ''पुरुष और शक्ति'' के भार में अपने नियंत्रण से साम्य रखते है .

शक्ति का उर्ध्वगामी विचरण मात्र उनके {शिवपुत्र} माध्यम से ही संभव है.इसके लिए साधक को स्वीकारयोग को इमानदारी से स्वीकार करना होगा.

”स्व”और उसके माध्यम में ”इ”कार अर्थात स्वयं मध्य में शक्ति का संयोग करते है.तब ही मुक्ति लाभ संभव है.

शिवपुत्र की इक्षा से ही शक्ति को अंतरमुखी एवं नियंत्रित करना संभव है.अन्यथा असंभव है.

..उन्हें स्वीकार करने से धनात्मक {+} तथा रिनात्मक { -} दोनों शक्तियों का मिलन संभव है. ”’

हम एक मानव शरीर की कल्पना करे, जिसमे आज्ञा से सहस्त्रार तक केदारखंड यानि धनात्मक क्षेत्र हो.स्वधिस्थान से मुलाधार तक रिणात्मक क्षेत्र हो .एवं अनाहत चक्र व् ह्रदय काशी हो, तो वही पर शिवपुत्र का अवस्थान है….

””””मन सर्वदा इंद्रियों के माध्यम से बाहरी तथ्यों को प्राप्त करने हेतु बहिर्मुखी हो चंचल रहता है.मन के इस बहिर्मुखी चंचल स्वभाव को अंतरमुखी करने की आवश्यकता है..शिवपुत्र को स्वीकार करने से मन की चंचलता दूर होती है और अभ्यंतर की शक्ति का एकमुखी प्रवाह शुरू होता है.”’

” त्रिशूल ”, की ब्याख्या करते हुए गुरु जी कहते है…”’

त्रिशूल में जो तिन शूल होते है,उनमे बिच के शूल का उपरी भाग { दो सुई की नोक की तरह है} ”काशी” अवस्थित है.

त्रिशूल त्रिकोण का प्रति रूप है

अर्थात केदार और कामख्या के मध्य में शिवपुत्र स्थित है.जो साक्षात् काशी है.

””’ शिवपुत्र”’ है– ””’ शिव की पूर्ण शक्ति.अर्थात शिव के त्रिशूल .”

”शिव” और ‘ शक्ति’ दोनों ही ‘त्रिशूल’ धारण करते है।

”’निराकार ब्रह्माण्ड में इन्ही दोनों को संयुक्त करने हेतु तीनो सुल का संयोग आवश्यक है.तीनो शूल मिलकर ही एक त्रिकोण बनता है और तब 'निराकार' उसके माध्यम से ही 'शिवपुत्र' रूप में साकार होकर प्रकट होते है…।

----------------------------------------

[ एक साधक शिष्य - प्रकाश- की केदार नाथ -हिमालय में''' गुरुदेव''' दर्शन . . . .... {मुलाकात } .....................हिंदी ) ...25 -जून 2009 ]


''
आदरणीय गुरु'' जी को....
.........
कोटि -कोटि प्रणाम....
.. अभी कुछ दिन पूर्व ही जब मै ''
केदार नाथ'' [हिमालय ]में ''गुरु देव'' से मिलने गया और ब्लॉग के बारे में चर्चा किया,तो ''गुरु देव'' अपने स्वाभाविक अंदाज में हंसने लगे. .''गुरु देव ''की हंसी में जैसे सम्पूर्ण केदार खंड शामिल होकर हंसने लगा और वह हंसी धीरे -धीरे एक रहस्यमयी मुस्कराहट में बदल गयी .जैसे अमृत मयी मन्दाकिनी हमारे अस्तित्व को एक ''अघोर शांति'' से घेर कर अपने गोद में उठा ली हो हमे.''गुरु देव'' ने शुन्य में सारे दृश्यों को जैसे देख रहे हो ,सब कुछ जान रहे हो.''गुरु देव'' की अत्याकर्षण कर देने वाली वाणी मेरे कानो में अमृत रस बन कर प्रवेश कर रहे थे.मेरी आँखे बंद होने लगी . ''मै सारे दृश्यों को देखने लगा.''उन सभी घटनाओ के बारे में सभी बातो को सत्य घटित होते हुए देखने वाला सिर्फ मै ही नही बल्कि मेरे जैसे हजारो ,अनगिनत वो साधक शिष्य है जिन्हें ''गुरु देव'' ने अपनी शक्तियों से जोड़ कर हमारी रक्षा करते है.हमें कदम-कदम पर रास्ता दिखाते है.ब्लॉग के बारे में ''गुरु देव'' ने बोलना प्रारंभ किया....
''बेटा ! ..मै सभी को अपनी पुत्र या पुत्री के दृष्टी से ही देखता हु और प्यार देता हू.जब मेरे पास कोई आता है तो मुझे मालूम है कि वो अपने जीवन और समाज से निराश से निरास और असंतुस्ट है.जीवन में अतृप्त है.इसलिए मै सर्व प्रथम उसे अपना अनमोल प्यार देता हूँ.जो उसे कभी किसी से नही मिला होता है.मेरे पास सबसे पहले प्यार ही तो है देने के लिए,इसलिए तो वो मेरे पास आया है.जब मै बेटा कहता हूँ तो कुछ औरत और मर्दों को असीम शांति मिलता है.उन्हें कभी किसी ने भी पिता भाव में निश्छल बेटा नही कहा है.इस एक शब्द से ही सारा अस्तित्व अमृत मयी उर्जा से भर जाता है और जीवन भर कभी भी अलग होने कि कल्पना भी नही करना चाहता है...शिवपुत्र से.क्योकि मेरे अस्तित्व में'' मै''जैसा कुछ नही है.
.......वह मेरे पास आया है.
मेरे अर्थात ''बाबा और माँ ''के पास आया है.ऐसे लोग मेरे पुत्र और पुत्री बन जाते है......
........
परन्तु कुछ औरत - मर्दों को मेरा ''बेटा शब्द गाली जैसा लगता है.ये वो लोग है जो युगों -युगों से ना तो किसी का ईमानदार संतान हो सके और ना ही अपने ही संतान के प्रति ईमानदार हो सके.इन्होने अपना हर जन्म सिर्फ शरीर भोग ,अपनी अतृप्त वासनाओ को तृप्त करने में ही लगाया है.....
.....इसलिए जब मै इन्हे बेटा या बेटी शब्द से ध्वनी कर पुकारता हूँ तो, इनमे जो युगों -युगों का, जन्म -जन्म का असुर भाव है,प्रेत भाव है,भोग करने का आंतरिक स्वभाव है ,उसे चोट लगता है और इनका आंतरिक मूल असुर स्वभाव जाग्रत हो जाता है और ये लोग ऐसा ही अप्राकृतिक निम्न कोटि का ब्यवहार करने लग जाते है.जो इनकी वाणी से और जीवन में इनकी हरकतों में भी परिलक्षित होने लग जाता है....
तुम खुद सोचो कि मै इनको बेटा कह कर बुलाता हूँ और ये इतनी घिनौनी हरकते करने लग जाते है.जो हजारो साल की बार -बार की जीवन यात्रा करने के बावजूद भी अपने मूल विकृत और पतित स्वभाव में ही जीना चाहते है.इनकी वासनाये जो जन्मो -जन्मो से अतृप्त है,जो बार- बार के स्थूल शरीर धारण कर,बार- बार भोग करके भी,इस जीवन में मुझे पाकर भी अतृप्त रह जाते है.अब उनका असुरत्व बढ़ जाता है.ये अब अपना निम्नतम प्रयास करने लग जाते है,..
........जैसे की, तुम सब जानते ही हो कि,'' मेरे कुछ शिष्यों ने मुझे marne के लिए जहर दिया है.जब मेरे पेट का आप्रेसन हुआ था २००५ अगस्त में तो कुछ ने गलत दवाईया दी और विष दे कर मुझे मारने का असफल कुप्रयास किया और मेरे अनुपस्थिति में मेरा जीवनोंपयोगी सामान लूट लिया.....
..
.'''''मेरे द्वारा मानव सभ्यता के कल्याण के लिए और ''परमात्मा'' की आज वर्तमान की बातो के लिखे हुए डायरियो तक को चुरा लिया.''.
अपना सारा प्रयास करके के भी जब वे मुझे अपना गुलाम नही बना सके और'' परमात्मा का दंड'' मिलने लगा तो, वो सब अपनी स्वाभाविक नीच और निम्नतम हरकतों पर उतर गये और तुम तो जानते ही हो ना कि,'' खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे'' और'' अंगूर खट्टे है '' वाली कहावत को सत्य कर बैठे.
...यही इनका स्वभाव है.यही इनका जाती गत लक्षण है .पतित का और पतिता हो जाना ''धन और भोग'' के लिए ही इनका चारित्रिक लक्षण है.ये संसार में किसी के प्रति भी ईमानदार नही हो सकते,कभी भी .इनके दुर्ब्याव्हार और दुस्चारित्रता के कारण समाज में जब इनका थू-थू होने लगता है,तो ये अपने ''गुरु'' को ही गाली देने लगते है.
'''हा ! मै प्लेन से चलता हूँ.मेरे पास मेरे पिता श्री ने वो सभी वस्तुए दी है जो भौतिक जीवन में आवश्यक है.'''
'''''जब परमात्मा '''बाबा''---मेरे पिता श्री''......अपने काम के लिए अपने बेटा को भेजते है तो सारे साधन भी उपलब्ध करा देते है.हा.! मै प्रथम मानव शरीर धारी अघोर हूँ,तभी तो मैंने '
'राजा दक्ष'' काळ के यज्ञ बिध्वंस से ही बंधन में पड़ी हुयी शक्तियों को मुक्त करा पाया
.....एक नपुंसक मनुष्य की सोच क्या इस स्तर तक जा सकती है,???...
'''''''''
'जो कार्य बाबा ने सरलता से करवा डाला....''
जब मै लगातार ७-८ महीने तक कामख्या [आसाम] में '
'अपने लक्ष्य माँ की मुक्ति'' में लगा हुआ था.उस समय संसार में कुछ गद्दार ,असुर शिष्य मेरी ही हत्या कि योजना बनाने में लगे हुए थे और अपनी पूर्ण क्षमता से प्रयास कर रहे थे.ये सभी मेरे नाम पर अपना धंधा चमकाने में तथा किसी भी तरह धन कमाने में लगे हुए थे.
''''मैंने सारे संसार को स्तंभित कर अपनी ''अघोर शक्तियों '' द्वारा ''बाबा श्री'' के सञ्चालन और निर्देशन में आदि शक्ति [सती ]माँ कामख्या और उनके सभी दसो रूपों को मुक्त करने में पूर्ण रूप से सफल हुआ.तभी से संसार की प्रकृति में तीव्रता से हो रहे परिवर्तन को तुम सब देख ही रहे हो.''''
कर्म ये सब करते है और उसका भोग फल मिलने पर दोष मुझे देते है.सभी जानते है कि असुर और पापी लोग जब अपने प्रयास में पूर्णतया असफल हो जाते है तो भगवान-परमात्मा को ही गाली देने लगते है.ऐसे ही लोग जब युगों -युगों में अपने पाप कर्म से धरती पर बोझ बनने लगते है,तब
''परमात्मा'' धरती पर से बोझ हल्का कर,प्रकृति को बचने के लिए स्थूल शरीर धारण कर किसी मानव जाती की माँ के गर्भ से जन्म लेकर अपनी लीला रचते है और असुरो का समूल सर्वनाश करते है..
यह स्मरण रहे. ......

''मैंने मूल शक्ति को,आसाम से मुक्त करा दिया है,किसी औरत को नही....''

..ये लोग मर्द और औरत है जो इंद्रियों और स्थूल भोग में लिप्त हो समाज के कलंक बन गये है.इनके अन्दर मर्यादा नैतिकता ,वाणी संयम का पूर्ण तया अभाव ही मिलेगा.ये लोग ऐसे धार्मिक स्थल का निर्माण और उपयोग भी करते है ,तो अपनी वासनाओ कि पूर्ति का अड्डा बना देते है.
ऐसे ही गली मुहल्लों में बना हुआ अवैध धर्म स्थल---ऐसे लोगो के अवैध संबंधो की पूर्ति के केंद्र में,कभी -कभी समाचार में तुम सभी लोग देखते और सुनते ही हो.
'''''''
'ये मानवता के कलंक है,धर्म के पतन के कारण है.समाज के कोढ़ है..'
'''''
'.इसी से हमे युग के अंत करने कि प्रेरणा मिलती है.'''
........
''''हम युग को समेत रहे है..याद रखो----चार युग का अंत हो रहा है.'''
.......इन लोगो के कारण ही चारो तरफ त्राहि- त्राहि ,मार- कट मचा हुआ है.
..'''''
'सभ्य नैतिक और सचरित्र तथा परमात्मा के प्रति ईमानदार समर्पण के लोगो का दम ऐसे असुर शक्तियों के कारण घुट रहा है.'''
याद रहे आसुरिक शक्तिया दुष्प्रचार में अत्यंत ही निपुड होती है.
.बेटा ! ब्लॉग पढ़ते रहो.
anonymaous के रूप में ये लोग अपने अन्दर का गंदगी बहर उलटी करते रहेंगे.बदबू फ़ैलाने वाले ये लोग अपनी पहचान को छिपा कर अपने आपको ब्यक्त करेंगे.इनके शब्दों में एक भयानक दुर्गन्ध मिलेगा,अश्लीलता मिलेगा..इनके शब्द बाजारू होंगे.,जो,गन्दी बस्तियों में रोज ही लोगो को सुनने को मिलता है.इनके हर ब्यवहार हर वाणी में निम्न से निम्न तम भाषा का उपयोग होगा.ये लोग अपने परिवार तक में,अपने सगे सम्बन्धी,अपने नजदीकी रिश्तेदारों तक में ''अछूत'' की अवस्था में आते जायेंगे.
....जब ये अपनों के नही हो सकते,तो ये किसी भी पराये के कैसे है..?
.'''
अगर वो पराया ''अघोर शिवपुत्र'' है तब तो,और ज्यादा इनकी आसुरिकता ब्यक्त होगी ,क्योकि ''परम सत्ता'' के सामने कोई भी नीच असुर कैसे ब्यक्त होता है ये तो तुम अपने धर्म-शास्त्रों में पढ़ते सुनते आये ही हो.
इसीलिए ही बोलता हूँ.'
'बाबा-माँ'' में लीन रहो सदा.ध्यान में डूब कर अपनी चारो तरफ घटित हो रहे जीवंत प्रसारण को [लाइव टेलीकास्ट ] देखते रहो.ये गाली जो शिवपुत्र को दी जा रही है.वो इसी जीवंत प्रसारण [लाइव् टेलीकास्ट ] का एक प्रमाण है.जो तुम एक anonymous के रूप में देख रहे हो.
''' धन्यवाद् के पत्र है ये असुर जिन्होंने बार-- बार भगवान बनाया.''
''''''
धन्यवाद् दो इन्हे ! जो ये मेरा प्रचार कर रहे है.भौकने दो इन्हे अपनी अपनी गली में. ,क्योकि ये भयभीत लोग है जो शिवपुत्र के अघोर रूप से भयभीत है .इनकी यह गाली ,यह आरोप इनके अन्दर उत्पन्न हुए भय का पारीणाम है.इनका भय इनकी चेतना पर हावी हो गया है. ये अपने पाप का घढ़ा भर रहे है....
'''''
''मैंने ''काळ की गति को बढ़ा दिया है.तीव्र कर दिया है.कि ये अपनी प्रकृति में से ही अपने आपको ब्यक्त करे.
''''''''ये मेरे वफादार प्रचारक है''''
.इन्हे हमने यही काम दिया है.ये निर्दोष है क्योकि यही इनका मूल आसुरिक स्वभाव है.
देखो ! कैसे इनकी विकृति प्रकृति से घना गाढ़ा काला बदबू चारो तरफ बिखर रहा है.
'
''''तुम्हारे जैसे मेरे हजारो पुत्रो ! तुम सब गवाह हो.''
ये बोलते है भागो-भागो..लेकिन ये पापी लोग कहा जायेंगे..?इन्हे तो हमने घेर लिया है.अब इनका जीवन तो भागते -भागते ही नस्ट हो जायेगा..
.ये ना तो अपने गुरु ke हो सके.,ना अपने पिता के,ना अपने संतान के,ना अपने पति के ,ना अपने कुल कुटुंब के...?.ये किसी के हो ही नही सकते.
अच्छा हुआ.इन्होने मेरा तस्वीर देख लिया.अब ये अपने तस्वीर का परिचय बतला रहे है.
कोटि-कोटि धन्यवाद.......anonymous ....
कोटि कोटि धन्यवाद्.....
ऐसे ही कुछ ना कुछ कहते रहो इससे तुम्हारी स्थिति और अवस्था का परिचय समाज और संसार को तुम प्रकट कर देते रहोगे.अब यही तुम्हारी नियति है.
..'''''अब
तुम पूरी तरह मेरे द्वारा नियंत्रित और संचालित हो.कहा तक भागोगे..?दसो दिशाओ में तो मै ही ब्याप्त हो रहा हूँ.हर एक में.'''
''''आओ एक बार फिर मेरी आँखों में देखो.आओ मुझमे प्रवेश करो बेटा/ बेटी..
यह कहते कहते गुरु देव अपने स्वाभाविक समाधि में स्थित हो गये.
चारो तरफ हिमालय में शुन्यता ब्याप्त हो गयी थी.जैसे सारा ब्रह्माण्ड और समस्त प्रकृति
गुरुदेव की इस ध्वनि को रुक कर सुन रही थी.गुरु देवके आदेश का पालन करने के लिए.
मेरे सारे शरीर में तेज करेंट की धारा निचे से ऊपर की ओर बह रही थी.
..''
श्री केदार नाथ जी'' के बर्फीले ठंडक में भी मेरा शरीर गर्म था.मै धीरे -धीरे अपनी आँखे खोलने का प्रयास कर रहा था लेकिन आँखे खोलने में असफल रहा.एक दो बार पलक खोलने पर मेरी नजरे गुरुदेव के चेहरे पर पढ़ी तो,मेरी आँखे ठहर नही पा रही थी.
जैसे लगा कि
मेरी आँखों पर तीव्र रोशनी धधकती हुयी ज्वाला रूप में पढ़ रही है.
आश्चर्य हुआ .मध्य रात्रि का समय.चन्द्रमा की पूर्ण किरणे हिमाच्छादित पर्वतों पर बिखर रही थी.केदार नाथ मंदिर के पूर्व दिशा में ऊंचे पर्वत पर स्थित ''
भैरो नाथ कि पहाड़ी पर एक विशाल चट्टान पर गुरु देव के रूप को मै बार बार बदलते देख रहा था.
'''''
'''''''गुरु देव ''का शरीर बाबा के रूप में परिवर्तित हो गया था.उनके शरीर पर फुफकारते हुए सर्प अत्यंत चौकन्ने होकर अपना फन फैलाये हुए ,फिर मैंने देखा अब उनका रूप विराट हो गया था .मैंने गुरु देव के शरीर में ब्रह्माण्ड में गति कर रहे ग्रह -नछत्रो को देख रहा था,उसमे पृथ्वी भी है और अब पृथ्वी पर इस स्थान को भी देख रहा हूँ,जहा हम अभी बैठे हुए थे.फिर गुरु देव का रूप विष्णु का हो गया.शस्त्र धारण किये हुए असंख्य हाथ...''''
.एक दूसरा दृश्य मैंने देखा...
'''''''''''''गुरु देव श्वेत वस्त्र पहने हुए [जैसा वे पहनते है सदा ] समाधिस्थ ,पीछे उनके अनेक मताए खड़ी है.दसो रूपों सहित ''माँ कामख्या ''का दर्शन अत्यंत रोमांचित कर देने वाला था.
मेरे सारे रोंगटे खड़े हो गये ....
एक दृश्य पुन: आया:--
'''''''''''''
'चारो तरफ अग्नि ही अग्नि लगी हुयी है गुरुदेव का उस पर नृत्य करता हुआ कदम दिखा.पैर में पहने हुए चंडी के कड़े को देख कर मै पहचान पाया..
{गुरु देव के दोनों हाथ और पैर में चंडी के कड़े पहने हुए रहते है.}.
मुझे अपने चारो तरफ सर्प ही सर्प दिख रहा था.मैंने अपनी आँखे खोली भयभीत होकर,क्योकि मुझे गुरु देव के पीछे से सिंह की गर्जन कि आवाज सुनाई दे रही थी.
मैंने देखा
एक सिंह गुरु देव के ठीक पीछे अपना दोनों पैर आगे किये हुए शांत चित्त से बैठा हुआ मुझे निहार रहा है.चारो तरफ विष धर रेंग रहे है.
अनेको बार ध्यान में मैंने विलक्षण अनुभूतियो में मैंने गुरु देव के साथ वार्ता में ,अनेक रूपों में देखा था.परन्तु पिछले ६-७ वर्सो में
गुरु देव के सामने बैठ कर मेरी यह अनुभूति एकदम अलग थी.मेरी आँखे धीरे धीरे बंद हो गयी.मेरे शरीर में करेंट का तीव्र प्रवाह बढ़ गया था.सारा शरीर पसीने से नहा गया था.मेरे मूलाधार से करेंट का एक तीव्र चोट मेरे चक्रों से होता हुआ मेरे सहस्त्रार में मार रहा था.स्वास रुकी हुयी थी.जैसे मेरा सारा शरीर 'शव' के समान हो गया था..
मैंने देखा
गुरु देव का स्थूल शरीर अदृश्य हो गया अब.गुरु देव के स्थान पर उर्ध्व करेंट कि एक धारा जैसे अग्नि स्तम्भ हो ,जो ऊपर ब्रह्माण्ड में कही चली गयी थी.उस अग्नि स्तम्भ से तेज बिध्युतिया स्फुर्लिंग प्रस्फुटित हो रहे थे.
मेरी चेतना उसी 'अ'रूप में जो गुरु देव के 'अ'रूप से ब्यक्त हो रही थी,में लीन हो गयी....
सूर्य कि रौशनी जो कम ही होती है ''केदार नाथ'' में,कभी -कभी ही निकलती है,मुझ पर पड़ रही थी रात के अंतिम पहर में बर्फ कि फुहार पड़ी होगी.,क्योकि एक मोती चादर बर्फ की चारो तरफ फैली हुयी थी.भैरो शिला मंदिर पर कोई घंटा ध्वनि कर रहा था.
मै अपने स्थूल शरीर में होश में आ रहा था धीरे -धीरे.मैंने देखा गुरु देव अपने स्थूल शरीर में मेरी और देख कर मुस्करा रहे थे.मंद मंद एक दम छोटे बच्चे जैसा कोमल मुस्कराहट के साथ ध्वनि हुआ.....
.......
..बेटा !.चलो नीचे चलते है...
...देखो ! कुछ बच्चे हमे ढूंढते हुए आ रहे है.तभी गुरु देव के कुछ पुत्र और पुत्रिया उन्हें ढूंढते हुए आते दिखे.जहा हम जिस शिला पर बैठे हुए थे.उसके निचे अगल बगल लगभग एक दर्जन पहाड़ी कुत्ते चुपचाप घेर कर शिला को बैठे हुए थे,एकदम शांत.जैसे गुरु देव के उठने का इंतजार करते हुए,सुरक्षा में नियुक्त हो बैठे हो.
इन कुत्तो को देख कर.चेतना नीचे के संसार में उन भौकते हुए कुत्तो कि तरफ बरबस ही चली गयी,जो ''प्रथम मानव शरीर धारी''अघोर''शिवपुत्र को गाली देते है.अर्थात गाली के रूप में उनका भौकना सुनाई पड़ने लगा.
सहसा प्रतीत हुआ....'''''''''
'' गुरु देव'''
................. कुत्तो को भी कितना प्यार करते है...''''
''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''
  • '''''''''एक सन्देश''''''
'''''जीवन और जिन्दगी को सम्हाल लो, अपने.''''
'''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''

.........''''''जब हम हिमालय गये थे,तो जिन्दगी नही ले गये थे.सिर्फ जीवन था मेरे पास.
''बेटा ! तुम भी अपना जिन्दगी छोढ़ कर मेरे पास अपना जीवन पाने आई थी.जिन्दगी लेकर नही आई थी.....
यहाँ जिन्दगी का क्या काम...?...
इन सबके पास मेरा दिया हुआ जिन्दगी है और मै जीवन के साथ जिन्दगी भी देता हूँ.
इन सबके पास मेरा दिया हुआ जिन्दगी है.......और....देखो..! सभी अपनी -अपनी जिन्दगी जी रहे है.
मेरा यह अपना जीवन है और मेरी यह जिन्दगी भी मेरी अपनी है.
मुझे जीवन और जिन्दगी बाबा ने दिया है.
मैंने अपनी '' माँ कामाख्या'' को उनके ''''दसो रूपों''' के साथ ''शक्तियों को मुक्त'' करा लिया है.
जीवन तो बाबा है और जिन्दगी मेरी माँ देती है.
जीवन परमात्मा का है.उन्होंने दिया है और जिन्दगी तुम सब लोग जीते हो...?....
बढ़ी अजीब सी बात है.....................?......?.......?............है न........!..
तुम्हारी जिन्दगी में जीवन तो है ही नही. तुम्हारी जिन्दगी में तो 2nd खंड है,जो तुम्हारे ही 2nd बॉडी द्वारा निर्मित है.
तुमने मिल कर अपने कर्मो से,अपने कर्तब्यो से,अपने -अपने चालों से ,अपनी -अपनी हरकतों से इसे इसको निर्मित किया है.
यह तुम्हारा है जिन्दगी .....?......और जीवन खो गया है..तुमसे....!
यह जीवन तो सेकण्ड बॉडी द्वारा संचालित और प्रभावित है,इस जगत के मानवों द्वारा.जिन्दगी तुम्हारा है और तुमने निर्मित किया है.मैंने नही.
मै तो सिर्फ जीवन देता हूँ और जिन्दगी का सञ्चालन करता हूँ.
....नियंत्रण भी...
आज कल मै ही कर रहा हूँ.वैसे तो,''''पिता श्री'' ही सब कुछ करते है.
जितना चाहते है मुझसे करवा लेते है.
देखो..! मै तो बेटा हूँ न उनका.वे मेरे पिता और माता है जो मेरे जगत की रचना किये है और आवस्यक्तानुसार जगत की रचना करते रहते है.
मेरी माँ मुक्त हो गयी है.यह जो कुछ भी ३-४ साल से इस धरती पर प्रकृति और मानव प्रकृति में हो रहा है.वो माँ के मुक्त होने की सुचना मात्र है.
''science'' के माध्यम से हम कुछ सन्देश आपके पास भिजवा दिया करते है,इस जगत के मानवों के पास उनके माध्यम से ही.
अभी मनुष्य को सिर्फ science की आवश्यकता है....मेरी नही....?..
मेरे जीवन की नही....
बाबा के द्वारा प्रदान किये गये जीवन की नही.अपने ही जीवन की नही....?..
''''इसी लिए ''परमात्मा'' अभी अपनी आवश्यकता की स्थिति उत्पन्न कर,ऐसी परिस्थिति जो जन्म दे रहे है कि मानव समाज को अपने निर्माता और सञ्चालन करता कि आवश्यकता महसूस होने लगे और स्वतंत्र हो चुकी माँ के मुक्त होने का गहरा आभास हो सके.''''
'''''क्योकि '''परमात्मा '' चाहता है कि उसके द्वारा निर्मित उसकी संतान उसको भी कम से कर इस बार कलयुग के अंतिम समय में उसको ईमानदारी से याद कर पुकार ले....सचमुच परमात्मा बढ़ा ही दयालु है.अपनी संतानों को कभी भी नही भूलता ओर कदम -कदम पर उसका ख्याल रखते हुए उसको समझाता रहता है,.......
...........'''''''पर अभागा मानव इनसान ,मनुष्य हो ............तब तो समझे......
''''''''गहरे देखो ! तुम्हारी प्रकृति में तेजी से परिवर्तन होता ही जा रहा है..
''science''' {आज के मानवों का भगवान } ..! ..अगर सम्हाल सकता है तो सम्हाल ले 'प्रकृति में हो रहे इस परिवर्तन ''को...
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""

Please email your opinion in Hindi using English font to shivputra_ekmission@yahoo.co.in